भारत के प्रमुख त्यौहार, भारत के प्रमुख त्यौहारों की पूरा विश्लेषण, भारत के पर्व,

              भारत विविधताओं का देश है यंहा अनेक धर्मो के लोग रहते हैं और सबकी अपनी अलग अलग धार्मिक त्योहार हैं जिनके अलग अलग रंग हैं अलग अलग विषेशता हैं भारत मे मनाई जाने वाली प्रमुख त्यौहार में गणेश चतुर्थी, कृष्णजन्माष्टमी, दीपावली, दशहरा, क्रिसमस, ईद उल फ़ितर, ईस्टर, गुरुपर्व, बैशाखी इत्यादि सभी भारत मे मनाये जाने वाले महत्वपूर्ण त्योहार हैं। आइये जानते इन त्योहारो का महत्व और उनके विशेषताओं को।

 

गणेश चतुर्थी

इस आर्टिकल की प्रमुख बातें

 

             गणेश चतुर्थी , हिन्दू भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को मनाई जाती है । इस दिन भगवान गणेश जी का जन्म हुआ था । श्री गणेश बुद्धि और खुशहाली के भगवान हैं । हिन्दुओं में इनकी पूजा बाकी के सभी देवी – देवताओं से पहले और कोई भी शुभ काम आरम्भ करने से पूर्व होती है । भगवान गणेश हमारी सभी कामनाओं को पूर्ण करते हैं इसलिए इन्हें सिद्धि विनायक कहा जाता है । भगवान गणेश सभी विघ्नों को दूर करने वाले ‘ विघ्न विनाशक ‘ हैं , सभी दु:खों को हरने वाले ‘ दुःख हरता ‘ हैं और खुशी देने वाले ‘ सुख कर्ता ‘ हैं । गणेश चतुर्थी का उत्सव दस दिन तक चलता है ।

 

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पौराणिक कथाः

 

 शिव पुराण के अनुसार एक दिन शिव भगवान समाधि में थे और घर में उनकी पत्नी पार्वती स्नान करने जा रही थीं । दरवाजे पर पहरा देने के लिए कोई नहीं था इसलिए मां पार्वती ने अपने शरीर की गन्दगी से गणेश की रचना की । उन्होंने गणेश से मुख्य दरवाजे पर पहरा देने को कहा और उन्हें किसी को भी घर के अन्दर न घुसने देने की आज्ञा दी । भगवान शिव को गणेश के बारे में कुछ मालूम न था । जब शिव वापिस आए तो गणेश ने उन्हें अन्दर न आने दिया क्योंकि वे मां पार्वती की आज्ञा का पालन कर रहे थे । भगवान शिव ने क्रोध में आकर गणेश का सिर धड़ से अलग कर दिया और अन्दर आ गए ।

 

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पार्वती दु : ख से टूट गई और उन्होंने शिव से विनती की कि वे गणेश को फिर से जीवित कर दें । शिव ने पार्वती से वायदा किया कि सबसे पहले उन्हें जो भी मिलेगा वे उसका सिर काटकर गणेश के शरीर से जोड़ देंगे । उन्हें एक हाथी मिला और इस तरह शिव ने गणेश पर हाथी का सिर लगाकर उन्हें फिर से जीवित किया । उन्होंने गणेश को अपनी सेना का सेनापति बना दिया , और इस तरह उनका नाम गणपति पड़ा । शिव ने उन्हें एक वर भी दिया कि लोग कोई भी शुभ काम आरम्भ करने से पहले तथा अन्य देवी – देवताओं की पूजा से पहले गणेश की पूजा करेंगे ।

 

 

 

महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी का त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है । यह गुजरात , कर्नाटक , आन्ध्र प्रदेश , मध्य प्रदेश और उत्तरी भारत के कई भागों में भी मनाया जाता है । यह त्यौहार दस दिन तक चलता है । संस्कृति और राष्ट्रभक्ति को बढ़ावा देने के लिए , श्री लोकमान्य तिलक ने इसे लोक उत्सव में तब्दील किया था और इसे स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान लोगों को एकजुट करने और अंग्रेजों की सभाओं पर रोक लगाने की नीति का जवाब देने के लिए इस्तेमाल किया । इस त्यौहार ने भारतीयों में देशभक्ति की भावना को फिर से जिन्दा किया और इसकी पृष्ठभूमि में राजनेता अंग्रेजी राज के खिलाफ भाषण देकर लोगों में प्रेरणा और जोश का संचार करते थे । इस उत्सव के पहले दिन लोग अपने घरो में गणेश जी की मूर्ति लाते हैं और इसकी स्थापना करते हैं ।

 


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कई समुदाय मिलकर गलियों , मैदानों और बाजारों में गणेश जी की मूर्ति की स्थापना करते हैं । यह बड़ी – बड़ी मूर्तियां 20 से 30 मीटर तक ऊंची होती हैं । ये खूब अच्छी तरह से सजाई जाती हैं । फिर पुजारी इनमें प्राण डालता है और रस्मों के साथ मन्त्र पढ़ता है । इस सारी क्रिया को प्राण प्रतिष्ठा करना कहते हैं । इसके बाद षोडशोचारा – गणेश जी को सम्मान देने के 16 तरीके – होता है । लोग नारियल , मोदक , गुड़ , दूर्वा , धूप और लाल फूल चढ़ावे में चढ़ाते हैं । रक्त चन्दन से मूर्ति का तिलक किया जाता है और इस पूरी रस्म के दौरान वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है । वे उच्चारण करते हैं ‘ गणपति बप्पा मोरिया , परच्या वर्षी लौकरिया ‘ ( मेरे पिता गणपति , अगले साल जल्दी आना ) ।

 

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दस दिन तक लोग गणपति की पूजा करते हैं , भक्तिगान गाते हैं और नाचते हैं । उपदेश , कविता पाठ , संगीत सभाएं , आर्ट शो , लोक नृत्य , दौड़ें , छकड़ा दौड़ , नाटक वगैरह का आयोजन किया जाता है । ग्यारहवें दिन बड़े जुलूस में इन मूर्तियों को सजाकर , वाहनों पर बिठाकर , नदी , तालाब या समुद्र पर ले जाया जाता है और वहीं इनका विसर्जन कर दिया जाता है । हजारों लोग इन जुलूसों में भाग लेते हैं और ‘ गणेश महाराज की जय ‘ , ‘ गणपति बप्पा मोरिया , अगले साल तू जल्दी आ ‘ के नारे लगाते चले जाते हैं । गणेश जी स्वार्थ और अहंकार के नाश का प्रतीक हैं । ये अपने विभिन्न विशाल शानदार स्वरूपों में इस अनित्य संसार का साकार रूप हैं ।

 


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जन्माष्टमी

 

     हिन्दू कैलेण्डर के भाद्रपद ( अगस्त – सितम्बर ) महीने की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि पर जन्माष्टमी का पर्व आता है । हिन्दू ग्रन्थों के अनुसार , भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्री कृष्ण जी का इस दिन जन्म हुआ था । उनके जन्म की खुशी में जन्माष्टमी का उत्सव दो दिन मनाया जाता है – पहले दिन गोकुलाष्टमी और दूसरे दिन जन्माष्टमी या कालाष्टमी मनाई जाती है ।

 

दन्तकथाः

 

पुराने समय में मथुरा पर उग्रसेन नाम का राजा राज करता था जिसकी दो सन्ताने थीं एक बेटा जिसका नाम कंस था और एक बेटी जिसका नाम देवकी था । कंस इतना ज़ालिम था कि उसने अपने माता – पिता को बन्दी बना रखा था । उसकी बहन देवकी की शादी वासुदेव से हुई थी । शादी के दिन एक आकाशवाणी हुई थी कि देवकी की आठवीं सन्तान कंस के विनाश का कारण बनेगी । यह सुनकर दुष्ट कंस ने देवकी और वासुदेव को कारागार में बन्दी बना लिया । देवकी ने सात बच्चों को जन्म दिया और कंस ने सातों को मौत के घाट उतार दिया ।

 

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जब श्री कृष्ण देवकी की आठवीं सन्तान के रूप में पैदा हुए तो जेल के दरवाजे अपने आप ही खुल गए , चौकीदार गहरी नींद में चले गए और आकाशवाणी ने वासुदेव को आदेश दिया कि वह अपनी संतान को गोकुल में अपने दोस्त नंद और उसकी पत्नी यशोदा के पास ले जाए । यशोदा की नवजात पुत्री देवी पार्वती का रूप है और उसे वह कृष्ण की जगह यहां ले आए । जब कंस ने उस बच्ची को मारना चाहा , तो वह आसमान की ओर उड़ गई और वहां से आकाशवाणी हुई , ‘ ओ कंस , तुम्हें मारने वाला जिन्दा है । ‘ । इस तरह नंद और यशोदा कृष्ण के नए माता – पिता बन गए और उसे पालने लगे । कुछ वर्षों बाद कृष्ण ने कंस का वध कर दिया ।

 

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उत्सवः

 

कृष्ण जन्माष्टमी देश भर में बहत भक्ति और श्रद्धा से मनाई जाती है । इस दिन मन्दिरों में सजावट व रोशनियां की जाती हैं । पुजारी मन्त्रों के साथ बालगोपाल के अनुरूपों व राधा की मूर्तियों को पंचामृत स्नान करवाते हैं , जिसमें दूध , घी , दही , शहद और गंगा जल मिला होता है । इसे शंख में डालकर मूर्तियों को स्नान करवाया जाता है । इसके बाद बालगोपाल की मूर्ति रात को पालने में बिठा दी जाती है । शंख और घण्टे बजाए जाते हैं । जो कृष्ण के जन्म का संकेत होता है । भक्तिगान गाए जाते हैं । और नृत्यों के साथ जश्न मनाया जाता है ।

 

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इस दिन लोग व्रत रखते हैं और रात को कृष्ण जन्म के पश्चात् ही व्रत खोला जाता है । कई लोग व्रत में केवल फल . चाय या दूध ही लेते हैं तथा कुछ लोग रात तक निर्जल व्रत रखते हैं । कई स्थानों पर जन्माष्टमी से एक दिन पहले , एक लोकप्रिय प्रचलन किया जाता है जिसे दही हांडी कहते हैं । एक बडी – सी हांडी में दही , मक्खन या दूध डालकर रस्सी से बांधकर बहुत ऊपर लटका दिया जाता है । जवान लड़के मानव पिरामिड बनाकर इस तक पहुंचते हैं और अन्त में इसे तोड़ देते हैं । लोग ‘ गोबिन्दा आला रे ‘ चिल्ला चिल्लाकर गाते हैं । यह रिवाज महाराष्ट्र में बहुत प्रचलित है ।

 

 

 

मथुरा , उनका जन्म स्थान बहुत ही खूबसूरती से सजाया जाता है और रासलीला रचाई जाती है । श्री कृष्ण के जन्म के विभिन्न पहलुओं को झांकियों में दिखाया जाता है । मथुरा के हर घर में झूले लगाए जाते हैं और फलों से सजाए जाते हैं । ये हर घर के आंगन की शोभा बढ़ाते हैं । 

 

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श्री कृष्ण ने इस दुनिया में कई किरदार निभाए । वे बहुत अच्छी बांसुरी बजाते थे , गैया चराने वाले चरवाहे , अमर प्रेमी , शिक्षक , राजनीतिज्ञ , योद्धा , नायक , दार्शनिक और कूटनीतिज्ञ थे । वे सच्चे अर्थों में योगी थे जिन्होंने योग का असली सत्य सामने रखा । वे सभी 64 कलाओं में पारंगत थे । उन्हें भगवान का प्रत्यक्ष स्वरूप मानते हैं । ‘ गीता ‘ में संग्रहीत अर्जुन को दिया गया उनका ज्ञान हमें उनके उत्कृष्ट विवेकमय , बुद्धिमान और कूटनीतिज्ञ होने के बारे में बताता है । गीता को हिन्दू अपना पवित्र ग्रन्थ मानते हैं ।

 

दुर्गा पूजा

 

 दुर्गा पूजा , जिसे नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है , 9 दिन लम्बा त्यौहार है और यह सम्पर्ण भारत में अलग – अलग रीति – रिवाजों व परम्पराओं के साथ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है । यह हिन्दुओं के अश्विन मास की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा ( सितम्बर / अक्टूबर ) को मनाया जाता है और इसी महीने की नवमी तक चलता है । दसवें दिन दशहरे का त्यौहार आता है । एक उत्सव से बढ़कर यह प्यार , जीवन , परिवार मिलन , नए उत्साह ओर मेल – मिलाप का त्यौहार है ।

 

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            यह त्यौहार देवी मां दुर्गा की राक्षस महिषासुर पर जीत की खुशी में मनाया जाता है । एक पौराणिक किवदन्ती के अनुसार , राक्षस महिषासुर ने देवताओं को पराजित कर दिया था । तब राजा इन्द्र त्रिदेव अर्थात् ब्रह्मा , विष्णु व महेश , के पास मदद मांगने गए । इंद्र की प्रार्थना सुनकर तीनों देवों के मुंह में से बिजली चमकी और दस हाथों वाली मां दुर्गा प्रकट हुई । देवी मां दुर्गा प्राणघातक हथियारों से लैस , शेर पर सवार होकर राक्षस से लड़ीं ओर उसे मार दिया । उस दिन से लेकर , देवी दुर्गा , सर्वव्यापी मां के रूप में 9 रातों तक पूजी जाती हैं । अत : इस तरह इस त्यौहार का नाम नवरात्रि पड़ा ।

 

 

 

       यह भारत के विभिन्न भागों में अलग – अलग प्रकार से मनाया जाता है । उत्तरी भारत में लोग नौ दिन व्रत रखते हैं और फलाहार रहते हैं । वे रामायण का पाठ करते हैं । रामलीला दिखाई जाती है जो नौ दिन तक चलती है । लोग इन नौ दिनों में कोई भी नया काम करने को शुभ मानते हैं , जैसे कि नये घर में गृह प्रवेश करना या नया व्यवसाय आरम्भ करना ।

 

 

 

गुजरात, महाराष्ट्र व राजस्थान के कुछ भागों में नवरात्रि हर घर में बहुत जोश व श्रद्धा के साथ मनाई का सबसे रंगीला और मनोरंजक भाग है डांडिया – रास और गरबा । पुरुष , महिलाएं और बच्चे अपने सबसे सुन्दर कपड़ों में शाम को एकत्रित होते हैं और मां दुर्गा की पूजा करते हैं । मिट्टी के दीये जलाये । जाते हैं , मां दुर्गा के समाने पानी का भरा हुआ कलश रखा जाता है और सबसे पहले इसकी पूजा की जाती है । मन्त्र पढ़े जाते हैं , भक्ति के गीत गाए जाते हैं व आरतियां की जाती हैं । फिर प्रसाद बांटा जाता है । इसके बाद बच्चे – बूढ़े सभी इस कलश के चारों ओर नृत्य करते हैं । लोग डांडिया खेलते हैं । 

 

 

 

बंगाल , आसाम , झारखण्ड और उडीसा में यह बहत ही धूमधाम से मनाया जाता है । मां दुर्गा की खूबसूरत । मूर्तियां घरों , मन्दिरों और आलीशान पंडालों में सजाई जाती हैं और सामुदायिक पूजा की व्यवस्था की जाती है । नवरात्रि के पहले दिन , जिसे ‘ महालया ‘ कहते हैं , से । उत्सव की शुरुआत होती है । लोग इस दिन पहले तर्पण । – जिसमें पूर्वजों को याद किया जाता है – और दूसरा । चाकू – जिसमें मां दुर्गा की तस्वीर की आंखें बनाई जाती हैं – की रस्म करते हैं । 

 

 

 

बाकी के दिन लोग अपने रीति – रिवाज करते हैं । और विजयदशमी तक हर शाम को मनोरंजन प्रोग्राम होते । हैं । देवी मां का चेहरा बोधून तक ढका रहता है , फिर छठे दिन यानि कि षष्ठी को बोधून की रस्म के वक्त देवी के चेहरे से कपड़ा हटाया जाता है । औरतें अपने बच्चों की सुख शान्ति के लिए व्रत रखती हैं ।

 

 

 

देवी मां के कुमारी रूप की पूजा होती है ओर सप्तमी को सामने आती हैं । अष्टमी और नवमी को भी कई जगह मां देवी की पूजा की जाती है । इस दिन कुमारी कन्याओं को भोजन खिलाया जाता है । भक्तगण मन्त्रों का जाप करते हैं , नृत्य करते हुए लोग पंडालों में जाते हैं और पूजा करते हैं । सभी पंडालों में रोशनियां की जाती हैं जिनसे पंडाल जगमगाने लगते हैं और ढोलक की थाप से लोगों का रोमांच बढ़ जाता है । दसवें दिन यानि कि बिजोया दशमी के दिन देवी मां दुर्गा की मूर्तियों को पूरी रस्मों के साथ नदी ( बहते पानी ) में विसर्जित कर दिया जाता है । 

 

 

 

दक्षिणी भारत में , तमिलनाडू , आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में तीन देवियों दुर्गा , सरस्वती और लक्ष्मी की पूजा की जाती है । छोटी – छोटी गडियां , जिन्हें बोमाई कोलू कहते हैं , घरों में सजाई जाती हैं । लोग मिठाइयां और नारियल एक – दूसरे को भेंट में देते हैं । नवमें दिन देवी सरस्वती की पूजा की जाती है और दसवें दिन विजयदशमी मनाई जाती है । लोग पूरे दस दिनों को बहुत शुभ मानते हैं । बच्चे इन दिनों कोई नई कला जैसे कि गाना या नृत्य सीखना शुरू करते हैं । 

 

 

 

भारत में सभी त्यौहारों में देवताओं की पूजा की जाती है , पर केवल यही एक त्यौहार है जिसमें देवी को पूजा जाता है । इस दिन मां देवी की अकेले ही पूजा की जाती है और साथ में कोई भी साथी ( पुरुष ) नहीं रखा जाता । अन्य उत्सवों में जब देवताओं को पूजा जाता है तो उनकी पत्नियों को भी साथ में रखा जाता है । पर मां दुर्गा की महानता इस दिन देखी जा सकती है ।

 

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दशहरा

 

         दशहरा हिन्दुओं का प्रसिद्ध त्यौहार है जिसे विजयदशमी के नाम से भी जाना जाता है । यह हिन्दुओं के अश्विन महीने ( सितम्बर – अक्टूबर ) की शुक्ल पक्ष की दसवीं तिथि को आता है । यह अच्छाई की बुराई पर विजय को दर्शाता है । राक्षसराज रावण , श्री राम की पत्नी सीता का अपहरण कर ले गया था । श्री राम ने कई कोशिशें कीं पर रावण ने उनकी पत्नी को मुक्त नहीं किया । अंत में राम ने अन्यायी रावण के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी जो नौ दिनों तक चली और दसवें दिन श्री राम ने रावण को परास्त कर विजय पाई ।

 

 

 

एक और किवदन्ती भी इस त्यौहार से जुड़ी है कि देवी मां दुर्गा ने महिषासुर राक्षस का संहार इसी दिन किया था । पश्चिमी बंगाल में वहां यह सबसे महत्त्वपूर्ण त्यौहार माना जाता है जो दस दिनों तक चलता है । इसे दुर्गा पूजा के नाम से जाना जाता है । इसे नवरात्रि भी कहते हैं , कई हिन्दू जन नौ दिनों तक व्रत रखते हैं । इस त्यौहार की विशेषता है राम लीला , नृत्यनाटिका जो श्री राम की जीवनी को दर्शाती है । रामलीला शाम को होती है और लोग इस गाथा को सुनने भारी मात्रा में एकत्रित होते हैं । स्टेज पर इस गाथा को नाटक के रूप में दिखाया जाता है । यह पूरे भारत के शहरों और गांवों में पूरे नौ दिन तक खुले मैदानों में दिखाई जाती है । रामलीला प्रतियोगिताएं रखी जाती हैं और सबसे श्रेष्ठ रामलीला को इनाम मिलता है ।

 

 

 

रावण , उसके भाई कुम्भकरण और बेटे मेघनाथ के विशाल बुत बनाए जाते हैं , उनमें पटाखे भर कर उन्हें खुले मैदान में लगता है और इस मेले में इन बत जला दिया जाता है और बराई पर जश्न मनाया जाता है । लोग रंग या जाता है । दसवें दिन उस मैदान में मेला इस मेले में इन बुतों को आग लगा कर जाता है और बुराई पर अच्छाई की जीत का जाता है । लोग रंग – बिरंगे कपड़े पहन इस दण्य को देखने आते हैं । यह सब देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ी आती है । भारत में मैसूर और कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है ।

 

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मैसूर दशहरा :

 

मैसूर का दशहरा दस दिन लम्बा राजसी उत्सव है जो अच्छाई की बुराई पर जीत का प्रतीक है । यह कर्नाटक का राज्योत्सव है । दन्तकथा के अनुसार इस दिन देवी चामुण्डी या दुर्गा ने महिषासुर राक्षस का वध किया था । दशहरे का चरम क्षण विजयदशमी की यात्रा होती है जो दसवें दिन निकलती है । देवी चामुण्डा मैसूर के राजपरिवार की राजदेवी हैं । देवी चामुण्डा की मूर्ति को सुनहरे हौदे में सजाकर खूब अच्छी तरह से सजाए गए हाथियों पर बिठाया जाता है ।

 

 

 

सैकड़ों सजे हुए घोड़े , लोक नर्तक , रस्मी पहनावे में सिपाही , घुड़सवार फौज , पैदल फौज और रंग – बिरंगी झांकियां इस जुलूस के पीछे राजमहल से बानी मंडप तक चलते हैं , जहां टॉर्च लाइट परेड और अंत में घुड़सवारी के शानदार करतब दिखाए जाते हैं । आज , यह उत्सव सांस्कृतिक विविधता का और कर्नाटक की उपलब्धियों की प्रदर्शन मंजूषा के रूप में महत्त्वपूर्ण है । इस उत्सव को संरक्षण दे कर सरकार कर्नाटक की श्रेष्ठ व उच्च संस्कृति को दुनिया के सामने लाने में सफल।

 

कुल्लू दशहरा :

 

देश के अन्य भागों में जब दशहरे । का उत्सव समाप्त हो जाता है तो कुल्लू का दशहरा शुरू होता है , यानि कि दशहरे के त्यौहार के आखिरी दिन से यह सात दिन तक चलता है । भगवान रघुनाथ ( श्री राम का दूसरा नाम ) की मूर्ति को रंग – बिरंगी पालकी में बिठाकर इसे इसकी स्थिर जगह ढालपुर मैदान से अन्य जगह मैदान के उस पार बड़ी – बड़ी रस्सियों से खींच कर ले जाना इस उत्सव का मुख्य दृश्य होता है । लोग रस्सियों से खींचने की क्रिया में बढ़ – चढ़ कर हिस्सा लेते हैं क्योंकि इसे पवित्र और शुभ माना जाता है ।

 

 

 

इस रंग – बिरंगी पालकी को कुल्लू की गलियों में जुलूस के रूप में निकाला जाता है । पूरे कुल्लू के 365 देवताओं को पालकियों में बिठाकर पंडितों द्वारा यहां एक – एक करके लाया जाता है और ये श्री रघुनाथ के पास आकर उन्हें प्रणाम करके अपना स्थान ग्रहण करते हैं । इतने सारे देवता जब भगवान रघुनाथ जी को प्रणाम करते हैं तो कुल्लू की वादी जैसे जीवन्त हो उठती है । अगले दिन , सुबह और शाम के समय सभी देवों का आह्वान किया जाता है और उनकी यात्रा निकाली जाती है । पुरुष अपनी काली टोपियों , सफेद कुर्तों और महिलाएं अपनी रंगीन चूड़ीदार – कुर्तों में खूबसूरत दिखते हैं । विभिन्न प्रकार के लोक नृत्य किए जाते हैं ।

 

 

 

आखिरी दिन भगवान रघुनाथ जी की पालकी ब्यास नदी के पास लाई जाती है जहां सूखी घास के छोटे ढेर को जलाया जाता है जो लंका दहन और बुरी शक्तियों की समाप्ति की ओर संकेत करता है । रस्मों के अनुसार एक भैंसे की बलि भी दी जाती है ।

 

दीवाली 

 

दीवाली शब्द संस्कृत के दीपावली शब्द से लिया गया है , जिसका अर्थ है दीयों की कतार । यह हिन्दुओं का सबसे शुभ दिन माना गया है और पूरे देश – विदेश में इसे बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है । दीवाली हिन्दू कैलेण्डर के कार्तिक महीने ( अक्टूबर / नवम्बर ) के कृष्ण पक्ष के 15वें दिन यानि कि अमावस्या को मनाई जाती है । यह उत्सव बुराई की अच्छाई पर जीत का सूचक है । यह हमें सिखाता है कि मानवता को दबाने वाली अज्ञानता व अंधेरे को दूर करें जो कि ज्ञान के प्रकाश को निगल जाता है ।

 

 

 

यह माना जाता है कि अयोध्या के राजा राम अपनी पत्नी सीता के साथ चौदह वर्ष का वनवास काट कर और राक्षसों के राजा रावण को , जिसने उनकी पत्नी का अपहरण किया था , हरा कर वापिस आए थे । इस दिन राजा राम का अयोध्या में राज्याभिषेक किया गया था । पूरा राज्य दीपकों की कतारों से सजा दिया गया था और लोगों ने श्री राम का खुश होकर स्वागत किया था । इस दिन देवी मां दुर्गा ने भी महिषासुर नामक दैत्य का संहार किया था । इसे नरक चतुर्दशी के नाम से भी मनाया जाता है । यह भगवन श्री कृष्ण की अंधेरे और राक्षस नरकासुर पर विजय का प्रतीक भी है ।

 

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भारत के प्रमुख त्यौहार

 

 

 

उत्तरी भारत के व्यापारी समुदायों जैसे कि मारवाड़ी , गुजराती आदि के लिए दीवाली नए वित्तीय वर्ष की शुरुआत है । वे धन की देवी लक्ष्मी और अपने बहीखातों की पूजा करते है । उनके लिए यह त्यौहार देवी लक्ष्मी का स्वागत करता है । 

 

 

 

जैन समदाय इसे नए वर्ष के रूप में मनाता है क्योंकि जैनियों के संस्थापक भगवान महावीर ने इस दिन निर्वाण प्राप्त किया था ।

 

पश्चिमी बंगाल में लोग इस दिन काली या दुर्गा मां की पूजा करतें हैं । यह दिन देवी काली की राक्षस पर विजय का प्रतीक है । 

 

 

 

दक्षिण भारत में , दीवाली नरसिंह ( आधा मनुष्य , आधा सिंह ) . भगवान विष्णु का अवतार के साथ सम्बन्धित है । हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार , बहुत पहले हिरण्याक्षिपु नाम का बहुत ही निर्दयी राजा राज करता था । भगवान ब्रह्मा ने उसे वर दिया हुआ था कि उसकी मृत्यु न तो मानव के हाथों होगी , और न ही किसी पशु के हाथों , न ही घर के अन्दर होगी और न ही बाहर न ही दिन में होगी और न ही रात के समय ।

 

 

 

वह बहुत शक्तिशाली बन गया और लोगों पर जुल्म ढाने लगा । अत : देवता लोग दु : खी होकर विष्णु भगवान के पास मदद । मांगने आए । भगवान विष्णु ने ‘ नरसिंह ‘ के रूप में अपना पांचवां अवतार लिया और हिरण्याक्षिपु को दिन निकलने से पहले , घर की देहरी में , दिए गए वर की सभी शर्तों से बाहर , उसे मार दिया । दीवाली से एक दिन पहले लोग अपने घरों में दिए जलाते हैं। 

 

 

 

पंजाब में , सिक्ख इस दिन अपने छठे गुरु , श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब जी की अमृतसर वापसी पर खुशियां मनाते हैं । सम्राट जहांगीर ने 1620 में गुरु हरगोबिन्द को 52 हिन्दू राजाओं के साथ कैद किया हुआ था । कैद से आजाद होकर भी गुरुजी ने बाहर निकलने से मना कर दिया कि जब तक बाकी के 52 हिन्दू राजाओं को भी आज़ाद नहीं कर दिया जाएगा वह आज़ाद होना नहीं चाहेंगे । दीवाली पांच दिन तक चलने वाला लम्बा त्यौहार है जिसमें वसु बारस , धन तेरस , नरक चतुर्दशी , लक्ष्मी पूजा , बाली प्रतिपदा और गोवर्द्धन पूजा शामिल हैं ।

 

 

 

लोग इस पांच दिन लम्बे त्यौहार के लिए कई दिन पहले तैयारी करनी शुरू कर देते हैं । लोग अपने घरों और दुकानों को धोते , साफ करते और सफेदियां करवाते हैं । वे अपने घरों को सजाते हैं , दक्षिण भारत में महिलाएं अपने घरों के सामने फर्श पर और दरवाजे के सामने रंगीन पाऊडर से रंगोली बनाती हैं । घर में तरह – तरह की मिठाइयां , नमकीन और पकवान बनाए जाते कुछ खास मिठाइयां केवल इस दिन ही बनाई जाती हैं । । दीवाली मिठाइयों और दावतों का त्यौहार है । लोग इस दिन खरीददारी करते हैं , नए कपड़े , मोमबत्तियां , खील – बताशे , लक्ष्मी गणेश की नई मूर्ति , मिट्टी के दीए और पटाखे खरीदते हैं । । 

 

 

 

धनतेरस के दिन लोग घर के लिए सोना या चांदी या बर्तन खरीदते हैं । इस दिन यह शुभ माना जाता है । लोग अपनी – अपनी हैसियत के अनुसार खरीददारी करते हैं । आखिर में बड़ा दिन आता है और लोगों का उत्साह अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है । यह दिन खुशियां मनाने का , दावतें खाने और खिलाने का और मिलने – मिलाने का होता है । लोग अच्छे व नए कपड़े पहन कर मन्दिर जाते हैं , अपने सम्बन्धियों और दास्तों से मिलते हैं और उनके लिए उपहार ले जाते हैं । बाज़ार बहुत ही सुन्दर तरीके से सजे होते हैं । सरकारी इमारतों को रोशनियों से सजाया जाता है जो रात को जगमग करती हैं । यहां तक कि गरीब से गरीब भी अपने घर में दीयों से थोड़ी बहत रोशनी करता है ।

 

 

 

इस दिन हर गांव और हर शहर जगमागाता है । लोग शाम को धन की देवी मां लक्ष्मी और श्री गणेश की पूजा करते हैं । प्रार्थनाओं के बाद वे गरीबो को दान देते हैं । एक बड़ा – सा दीया लक्ष्मी और गणेश की मूर्ति के सामने रात भर जलने के लिए रख दिया जाता है । इसके बाद घरों को मोमबत्तियों , दीयों और बिजली के बल्बों से सजाते हैं । बच्चे पटाखे चलाते हैं । लोग इस बात में विश्वास करते हैं कि देवी लक्ष्मी अपने शुभ चरणों से उनके घरों में पधारती हैं और उनके लिए शुभता लाती हैं । इसलिए वे अपने घरों को रात भर खुला रखते हैं ।

 

क्रिसमस 

 

         क्रिसमस दुनिया भर के ईसाइयों द्वारा मनाया जाने वाला मनसे शुभ और पवित्र त्यौहार है । यह त्यौहार हर वर्ष 25 दिसम्बर को पारम्परिक रूप से बहुत धूमधाम के साथ मनाया जाता है । प्रभु ईसा मसीह यानि कि जीसस क्राइस्ट का जन्म इसी दिन , ईसाइयों की नगरी , बैथलहम में हुआ । था । जीसस के जन्म की सही दिनांक ( वर्ष ) का कोई पता । नहीं है , फिर भी यह 98 ईसवी से मनाया जा रहा है । 139 ईसवी में रोम के बिशप ने ऐलान किया था कि जीसस का जन्म औपचारिक भोजन के रूप में मनाया जाएगा । 350 ईसवी में रोम के दूसरे बिशप , जीसस 1 , ने 25 दिसम्बर को क्रिसमस के दिन के रूप में मनाने को चुना ।

 

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क्रिसमस के दिन होने वाली कई रीतियां जैसे कि सांता क्लॉज़ , क्रिसमस ट्री और क्रिसमस के उपहारों का चलन बाद में हुआ । क्रिसमस के कई दिन पहले ही लोग इस दिन की । तैयारी में अपना घर सजाना , क्रिसमस ट्री को सजाना और शिशु जीसस के लिए पालना तैयार करना और उसमें शिशु जीसस , मां मेरी और जोसफ की तस्वीरें रखना शुरू कर देते । हैं । चारों ओर झण्डियां , कागज़ के फूल और तस्वीरें लगाते । हैं । क्रिसमस ट्री को बड़ी खूबसूरती से सजाया जाता है और छोटे बल्बों व मोमबत्तियों से रोशन किया जाता है । दुकानदार अपनी दुकानों को सजाते हैं । पूरे बाजार सजे होते हैं ।

 

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24 तारीख की शाम को कैरोल गाने और सांता क्लॉज़ का घरों में आना शुरू हो जाता है । आधी रात को , गिरिजाघरों में प्रार्थना शुरू की जाती है । और बड़े दिन के स्वागत में चर्च की घण्टियां बजाई जाती हैं । इसी रात को बालक जीसस का । जन्म हुआ था । 25 तारीख को दुनिया भर के चर्चों में सेवाएं शुरू हो जाती हैं । प्रेम के सन्देश और जीसस की शिक्षाएं पढी जाती हैं ।

 

 

 

क्रिसमस । केक और वाइन दावत के साथ पेश की जाती है । लोग एक – दूसरे को उपहार और बधाइयां देते हैं । ‘ पिता क्रिसमस ‘ ( सांता क्लॉज़ – उसकी तरह कपड़े पहने ) अपनी लम्बी दाढ़ी , लाल कोट और उपहारों से भरे बैग के साथ बच्चों में उपहार बांटता देखा जाता है । दुनिया भर के बच्चों की 13 – 20 दिन की छुट्टियां होती हैं , इन्हें बड़े दिन की छुट्टियां भी कहा जाता है ।

 

ईस्टर 

 

        ईसाइयों के धर्म में ईस्टर बहुत पवित्र दिन माना जाता है । कैनोनिकल गोस्पल और ओल्ड टैस्टामैन्ट के अनुसार , सूली पर । लटकाए जाने के बाद तीसरे दिन जीसस पुनः जीवित हो गए थे । उनका पुनः जीवित होना ईस्टर या पुनरुत्थान के दिन के रूप में मनाया जाता है । ग्रिगोरियन कैलेण्डर की गणना के अनुसार ( 21 मार्च से 25 अप्रैल ) पूर्णिमा के बाद वाले पहले रविवार को ईस्टर का त्यौहार मनाया जाता है ।

 

 

 

ईस्टर रविवार की तारीख 325 ईसवी में चर्च काऊंसिल ऑफ नाईसिया द्वारा तय की गई थी । । यह दान की समाप्ति का सूचक है , जो कि जीसस के दु : खों और मृत्यु की याद में व्रत , प्रार्थनाओं और प्रायश्चित्त के काल के रूप में मनाया जाता है । ईस्टर की तैयारियां ईस्टर रविवार से 40 दिन पहले शुरू हो जाती है और चालीस दिन का यह समय लैन्ट ( दान का समय ) कहलाता है ।

 

 

 

ऐश बुधवार से जो कि फरवरी / मार्च में आता है , शुरुआत करके , यह ‘ होली ‘ । ( पवित्र ) रविवार , यानि कि ईस्टर रविवार को समाप्त होती है । ईस्टर से पहले का सप्ताह ‘ होली ‘ ( पवित्र ) सप्ताह कहलाता है । और ईसाइयों में इसे विशेष माना गया है । ईस्टर से पहले का रविवार पाम रविवार कहलाता है और ईस्टर से पहले के तीन दिनों को मौंडी बृहस्पतिवार या ‘ होली ‘ बृहस्पतिवार , गुड फ्राइडे और होली शनिवार ( मौनी शनिवार ) कहते हैं ।

 

 

 

पाम सण्डे , मौंडी थर्सडे और गुड फ्राइडे क्रमश : जीसस के जेरूसलम में प्रवेश में लास्ट सपर ( आखिरी दावत ) और उनका सूली पर चढ़ाया जाना दर्शाते हैं । ‘ होली ‘ थर्सडे , गुड फ्राइडे और ‘ होली ‘ सैटरडे को ईस्टर ट्रायडूम ( लैटिन में तीन दिन ) भी कहा जाता है । पाम सण्डे इसलिए क्योंकि लोगों ने पाम की टहनियों से । उसका स्वागत किया । मौंडी थर्सडे उनकी अपने धर्तदूतों के । साथ लास्ट सपर ( अंतिम भोज ) की याद में मनाया जाता है ।

 

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गुड फ्राइडे

 

गुड फ्राईडे को दिन भर प्रार्थनाएं होती हैं और ‘ होली ‘ सैटरडे वाले दिन दु : ख व शोक मनाया जाता है । फिर इसके बाद आता है आखिरी दिन , ईस्टर सण्डे का , जब जीसस पुनः जीवित हो उठे थे । जीसस क्राइस्ट गुड फ्राइडे वाले दिन सूली पर चढ़ाए गए थे ओर उनका शरीर दफनाने के लिए गुफा में ले जाया गया था । कब्र पर पहरा था और पार्थिव शरीर की रक्षा के लिए एक बड़ा – सा पत्थर गुफा के मुंह पर लगा दिया गया था । अगले रविवार को जब कुछ । महिलाएं कब्र पर गईं तो उन्होंने देखा कि पत्थर गुफा के मुंह पर नहीं था और शरीर भी गुफा के अन्दर से गायब था ।

 

 

 

उस दिन और उसके कई दिन बाद स्थानीय लोगों द्वारा जीसस को देखा गया था । उनके अनुयायियों ने जान लिया कि ईश्वर ने जीसस को फिर से जीवित किया था । इस तरह ईस्टर सण्डे बुराई पर अच्छाई की जीत की खशी का चिह्न है । दुनिया भर के चर्च इस दिन मध्य रात्रि को जश्न व समारोह मनाते हैं । वेदियों को फूलों से सजाया जाता है और लोग पूजा करने के लिए चर्च में आते हैं । भारी मात्रा में समारोह का जश्न मनाया जाता है । विशेष प्रार्थनाएं , सूची , भजन और स्तोत्र गाए जाते हैं ।

 

 

 

कई चर्च में , ईस्टर की रस्म में कुंवारी मेरी के सम्मान में विशेष जलस निकाले जाते हैं । मध्य रात्रि में चर्च में अंधेरा कर दिया जाता है , फिर पहले एक मोमबत्ती जलाई जाती है , उसके बाद एक और , फिर यह सिलसिला चलता रहता है । पूरा का पूरा वातावरण रोशनियों से जगमगाने लगता है , चर्च में घण्टियां बजने लगती हैं और लोग आनन्द मनाने लगते हैं कि जीसस फिर से जीवित हो उठे हैं । एक बार फिर से चर्च अगरबत्तियों की खुशबू , रोशनी और संगीत से भर उठते हैं । लोग आपस में एक – दूसरे को ईस्टर के अंडे भेंट में देते हैं और नवजीवन के प्रतीक रूप में लोग नए कपड़े पहनते हैं ।

 

ईद – ऊल – फितर

 

          ईद – उल – फितर को ‘ व्रत तोड़ने का त्यौहार ‘ के नाम से भी जाना जाता ह । यह शब्द ‘ ओद ‘ ( जिसस स आना ) और ‘ फितर ‘ ( जिसका अर्थ है वापिस आना ) से बना है । अतः यह त्योहार हर साल वापिस आने की ओर संकेत करता है । रमादान , इस्लामी कैलेण्डर का नवमां महीना . इस्लाम के पांच स्तम्भों या सिद्धान्तों में एक है । ईद – उल – फितर रमादान के पावन महीने के अन्त में और इस्लामी कैलेण्डर के शावाल महीने के पहले दिन मनाया जाता है । हर चीज़ चांद के निकलने पर निर्भर करती है , जैसे ही नया चांद दिखाई पड़ता है लोग जश्न की शुरुआत कर देते हैं ।

 

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किवदन्तीः 

 

लोगों का विश्वास है कि पवित्र कुरान के बारे में पैगम्बर मोहम्मद को रमादान के महीने के आखिरी दस दिनों में खुलासा हुआ था । एक और मत है कि यह रमादान की 27वीं रात को हुआ था । लोग इस रात को ‘ लायलत – अल – काद्र ‘ या ‘ शक्ति की रात ‘ के रूप में मनाते हैं । 

 

महत्त्व और जश्नः 

 

रमादान का पवित्र महीना पैगम्बर मोहम्मद की जीत के लिए भी जाना जाता है – बद्र की लड़ाई और मक्का की विजय । लोगो का विश्वास है कि इस महीने में व्रत रखने से आत्मसंयम को विकसित करने में मदद मिलती है । रमादान के पूरे महीने में व्रत चलता है । लोग दिन भर व्रत करते हैं । और शाम को , सूरज के अस्त होने के साथ अल्लाह की नमाज पढ़कर इफ्तार ( शाम का भोजन ) करते हैं । रात के खाने के बाद रिवाज के अनुसार लोग अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलने जाते हैं । हर तंदरुस्त वयस्क मुस्लिम को रमादान का व्रत रखना चाहिए ।

 

 

 

इसके बाद शावाल महीने के पहले दिन ईद का दिन आता है । लोग इबादत करने और नमाज पढ़ने मस्जिद जाते हैं । वे सभा में जाकर प्रार्थना करते हैं । बच्चे ईदी मांगते हैं और संदर कपड़े पहनते हैं । महिलाएं खास मिठाई , सेवइयां और अन्य लज़ीज़ व्यंजन घर पर बनाती हैं । लोग नए कपड़े पहनते हैं और तीन दिन तक चलने वाले इस उत्सव को भरपूर मनाते हैं । यह खुशियों और शुक्रिया अदा करने का त्यौहार है । भारत में , मुसलमानों के अलावा और धर्मों के लोग भी इसमें भाग लेते हैं । ईद का त्यौहार प्यार , भाईचारे , शान्ति और एक – दूसरे के साथ मिल बांटकर चलने का सूचक है ।

 

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गुरूपर्व

 

         गुरुपर्व दो शब्दों को मिलाकर बनाया हैं – गुरु और पर्व । यह संस्कृत भाषा का शब्द है जिसमे गुरु का अर्थ है मार्गदर्शक और पर्व का अर्थ है उत्सव या समारोह।

 

इतिहास –

 

सिख गुरुओं के जीवन में आने वाले महत्वपूर्ण दिन जैसे कि जन्मदिवस , शहीदी दिन और अन्य महत्वपूर्ण दिनों को गुरुपर्व के रूप में मनाया जाता हैं। मार्च 1998 तक , गुरु पर्व की तारीख तय करने के लिए हिन्दू कैलेण्डर का इस्तेमाल किया जाता था , पर अब नानकशाही कैलेण्डर जिसकी शुरुआत मार्च 14 , 1999 में की गई इस्तेमाल किया जाता है और इसके अनसार । चैत , 1 नानकशाही गुरु नानक देव जी की जन्मतिथि है । पर गुरु नानक देव जी का जन्मदिन अभी भी हिन्द चन्द्रमास कैलेण्डर के अनुसार कार्तिक मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है । सभी गुरु पर्वो में गुरु नानक देव जी तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म दिन , गुरु अर्जन देव जी तथा गुरु तेग बहादुर जी का शहीदी दिवस और खालसा पन्थ की नींव वाला दिन सबसे अधिक महत्त्व वाले दिन हैं । 

 

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उत्सवः

 

 गुरु पर्व के दिन की तैयारियां कई सप्ताह पहले सुबह के समय की प्रभात फेरी से शुरू हो जाती हैं । इस जुलूस में हिस्सा लेनेवाले भक्तजन शहर के विभिन्न भागों में शबद ( भजन ) गाते हुए घूमते हैं । जब यह जुलूस घरों के आगे से निकलता है तो लोग इन्हें चाय और मिठाइयां पेश करते हैं । जश्न की शुरुआत अखण्ड पाठ से होती है , यानि पवित्र श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी का निरन्तर पठन यह गुरुपव से तीन दिन पहले शुरू किया जाता है । अखण्ड पाठ शुरू से अंत तक बिना रुके किया जाता है , और आखिर में गुरु पर्व वाले दिन समाप्त होता है ।

 

 

 

गुरु पर्व से एक दिन पहले , नगर कीर्तन निकाला जाता है । श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी की सुसज्जित पालकी भव्य समारोह में निकाली जाती है । पांच शस्त्र लोग ( पंज पियारे ) केसरी रंग का सिखों का झण्डा ( जिसे निसान साहिब कहते हैं ) लेकर इस पालकी के आगे – आगे चलते हैं । पंजाब में स्कूलों के बच्चे और स्थानीय बैंड भी इस नगर कीर्तन में भाग लेते हैं । फिर यह कीर्तन गुरुद्वारे में आ जाता है । गुरु पर्व वाले दिन कार्यक्रम के बाद कड़ाह प्रसाद बांटा जाता है और मुफ्त लंगर हरेक को दिया जाता है । चाहे कोई गरीब हो या अमीर , इस लंगर में सभी आकर गुरु का प्रसाद ग्रहण करते हैं ।

 

 

 

पवित्र पुस्तक श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी में पहले सिख गुरु नानक देव जी की शिक्षाएं सम्मिलित की गई हैं । गुरु नानक देव जी ने ईमानदारी , आध्यात्मिक उत्थान और धर्म की मानता पर जोर दिया । उन्होंने ईश्वर तक पहुंचने के चार रास्ते बताए – भाईचारा , सत्य , सन्तुष्टि और ज्ञानेन्द्रियों पर काबू । उन्होंने हिन्दुओं व मुसलमानों को गले लगाया और उन्हें मिलकर रहना सिखाया । हिन्दू और मुसलमान दोनों उन्हें एक समान प्रेम करते थे ओर कहते थे : ‘ गुरु नानक शाह फकीर , हिन्दू का गुरु , मुसलमान का पीर । ‘ गुरु अर्जन देव जी के शहीदी दिवस पर राहगीरों व मुसाफिरों में कच्ची लस्सी बांटी जाती है क्योंकि उन्हें गर्मी के गर्म महीने ( मई / जून ) में जिन्दा जला दिया गया था । इस तरह लस्सी बांटने को छबील कहते हैं ।

 

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बैसाखी 

 

वैशाखी या बैसाखी , भारत के मुख्य त्यौहारों में एक , बहुत धूमधाम ओर प्रसन्नता से पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है । यह हिन्दुओं के वैशाख महीने ( अप्रैल – मई ) में आता है । अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार , बैसाखी की तारीख हर वर्ष 13 अप्रैल और 36 वर्षों में एक बार 14 अप्रैल को पड़ती है । आसाम में यह रंगोली बिहु , बंगाल में नब बरस , तमिलनाडु में पुथाण्डू और केरल में पूरम विशु के नाम से मनाई जाती है ।

 

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बैसाखी का ज्योतिष में महत्त्व –

 

बैसाखी को वैशाखी के नाम से भी जाना जाता है । यह दिन सूर्य पंचांग के अनुसार निश्चित किया जाता है , चन्द्र पंचांग के हिसाब से नहीं । हिन्दुओं के लिए यह नए साल का शुभागमन है । माना जाता है कि हज़ारों वर्ष पहले , इस शुभ दिन पवित्र गंगा नदी धरती पर उतरी थी । हजारों हिन्दू गंगा के पवित्र पानी में डुबकी लगाकर अपने पापों को धोने के लिए हरिद्वार और प्रयाग संगम में गंगा के किनारे एकत्रित होते हैं । 

 

सिक्खों के लिए बैसाखी का महत्त्व –

 

वैशाखी या बैसाखी उत्सव की कहानी गुरु तेग बहादुर , सिक्खों के नौवें गुरु की शहीदी से शुरू हुई थी । मुगल राजा औरंगजेब द्वारा पूरे जनसमूह के सामने गुरु तेग बहादुर का सिर धड़ से अलग कर दिया गया था । औरंगजेब भारत में इस्लाम को फैलाना चाहता था । गुरु तेग बहादुर लोगों के अधिकार के लिए खड़े हुए जिससे मुगलों के सामने खतरा मंडराने गरु तेग बहादुर के शहीद होने के बाद उनके सुपुत्र गुरु गोबिन्द सिंह सिक्खों के अगले गुरु बने । ये अपने अनुयायियों में धर्म के लिए बलि का साहस और शक्ति का संचार करना चाहते थे ।

 

 

 

1699 में बैसाखी के ऐतिहासिक दिन , गुरु गोबिन्द सिंह ने आनन्दपुर के नज़दीक केशगढ़ साहिब नामक स्थान पर एक सभा बुलाई और पंथ खालसा की नींव रखी । पंजाब और हरियाणा में बैसाखी रबी की फसल काटने के समय का सूचक है और इसलिए किसानों के लिए यह बहुत ही विशेष है । इस दिन लोग नाचते – गाते हैं , पारम्परिक नृत्य ( भांगड़ा और गिद्दा ) करते हैं । और जोश तथा उत्साह से इस पर्व को मनाते हैं । 

 

आसाम –

 

 रोंगाली बिहु या बोहाग बिहु का जश्न नए साल के आने का सूचक होता है । मिसिंग , देओर और मोरन जनजातियां इस दिन बीज बोना शुरू करती हैं । युवा लड़के और लड़कियां पारम्परिक धोती . गमछा और मेखला पहने लोक गीतों की धुन पर पारम्परिक बिहु टोली या मुकोली बिहुओं में नाचते हुए इस दिन को रंगीला और खुशियों से भरपूर कर देते हैं । उनके तेजी से थिरकते पैर , लहराते , छिटकते हाथ , युवाओं के जोश को दर्शाते , सृजनीय उत्तेजना और पूरे उन्माद का सूचक बन जाते हैं । ढोल , पैपा ( भैंसे । के सींगों की पाइप ) और गगाना का आकेस्ट्रा उनके जश्न में खुशी , संगीत ओर उन्मादी जोश भर देता है ।

 

नब बरस : 

 

बंगाल बंगाल में नब बरस या नया साल अप्रेल की 13 या 14 तारीख को । जाता है । बंगाली महिलाएं पारम्परिक बंगाली साड़ी ( लाल सफेद साड़ी ) पहन , बालों में फूलों के गजरे सजाए , घर आटे के साथ केन्द्र में स्वास्तिक बनाकर रंगोली या अल्पनाएं बनाती हैं । घर में खुशहाली और आनन्द लाने के लिए देवी लक्ष्मी ( हिन्दुओं में इन्हें धन की देवी माना जाता है ) की पूजा की जाती है । अनेकों भक्तजन समीप की नदी में पवित्र स्नान करते हैं । 

 

पुथान्दु : तमिलनाडु –

 

 पथान्छ या वरूषा पिरापु तमिल नए साल के आने का संकेत देता है । और यह चिथिराई – तमिल कैलेण्डर का पहला मीहना – के शुरू में मनाया जाता है । माना जाता है कि हिन्दू भगवान ब्रह्मा ने इस दिन सृष्टि की रचना शुरू की थी । सुबह – सवेरे , घर की औरतें अपने घर के द्वार को कोलम के रंग – बिरंगे डिज़ाइनों से सजाती हैं । कोलम के बीचों – बीच एक लैम्प जिसे कुथुविलाकू कहते हैं , सजा कर रखा जाता है । यह घर से अन्धकार दूर करने की ओर संकेत करता है । लोग मन्दिरों में जाते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि यह नया साल खुशहाली और आनन्द लाए ।

 

 

 

पुथान्दु के दिन मशहूर और लोकप्रिय रस्म की जाती है जिसे ‘ कनी ‘ कहते हैं यानि कि सुबह – सवेरे उठकर पहले पहले कुछ शुभ देखना जैसे कि सोने और चांदी के गहने , पान के पत्ते , गिरियां , फल और सब्जियां , फूल , कच्चे चावल और नारियल । 

 

विशुकनी या कनी कनल ( पहला दृश्य ) : 

 

केरल परम्परा के अनुसार विशु के दिन सुबह – सुबह पहली नजर लिस्ट में । बताई गई चीजों में से किसी एक शुभ चीज़ पर पड़नी चाहिए जैसे कि कज्जन का पत्ता , सोने के गहने , नया सफेद कपड़ा , कुछ चावल या पैडी , कोन के पत्ते , कटा हुआ कटहल , कटे हुए नारियल और पीले रंग का खीरा एक बड़े से बर्तन में डाल दिए जाते हैं । इस बर्तन के पीछे घण्टी वाली धातु का बना दर्पण और भगवान कृष्ण की फूलों के हार वाली मूर्ति रखी जाती है ।

 

 

 

भगवान की इस मूर्ति के सामने दो दीपक , तेल से भर कर खड़े किए जाते हैं । घर का मालिक सबसे पहले इनको देखता है और फिर इसके बाद घर के बच्चों को उनके कमरे से आंखों पर कपड़ा बांधकर इस मूर्ति के सामने लाया जाता है जिसे विशुकनी कहते हैं । और बाद में यह गरीबो और ज़रूरतमंद लोगों में बांट दिया जाता है ।

 

 

 

विशु के दिन बच्चों को उपहार या कुछ पैसे दिए जाते हैं जो माना जाता है कि बच्चों के लिए खुशहाली लाते हैं । इस परम्परा को विश कैनीतम कहते हैं । दावत में स्वादिष्ट दाल सब्जियां बनाई जाती हैं जैसे कि विप्पामपूरसम ( नीम की बनी कड़वी – सी खाने की चीज ) और मम्पजपच्चडी ( आम का खट्टा सूप ) । मनोरंजन करने वाले युवा महिला व पुरुष केले के सूखे पत्तों की स्कर्ट और चेहरे पर मास्क लगाकर ‘ चोजी ‘ की तरह कपड़े धारण करके एक घर से दूसरे घर जाते हैं और अपने प्रदर्शन के लिए इनाम एकत्रित करते हैं जिसे वे विशुवेला या नए साल के मेले में खर्च करते हैं । 

 

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विशाखा : बिहार 

 

वैशाखी का उत्सव बिहार में विशाखा के रूप में , साल में दो बार मनाया जाता है । पहले हिन्दुओं के विशाखा ( अप्रैल ) के महीने में और फिर कार्तिक मास ( नवम्बर ) के महीने में । विशाखा उत्सव सूर्य देवता ( छठ पूजा ) को अर्पण किया गया है । सूरजपुर – बारागाओना में छोटे गांवों के भक्तजन मन्दिर के तालाब में नहाकर और फूल व गंगा नदी का पवित्र पानी लेकर सूर्य देवता को अर्घ्य ( सम्मान ) देते हैं । यह त्यौहार मेलों और जुलूसों के साथ मनाया जाता है । इनमें लोग बहुत जोश से गाते , नृत्य करते , खुशियां मनाते हैं । हर कोई इस त्यौहार को पूरे विश्वास और भगवान की प्रार्थना करते हुए मनाते हैं ताकि उनका आने वाला नया साल उनके लिए खुशियां और समृद्धि लाए ।

 

     होली

 

              भारत के प्रमुख त्यौहारों में से एक हैं होली । भारत मे होली बहुत ही धूमधाम से मनाया जाना वाला त्यौहार हैं। पूरे भारत मे इसे बहुत धूमधाम और उत्साह के साथ मनाया जाता हैं। होली भाईचारा का प्रतीक हैं। इसमे एकदूसरे को रंग गुलाल लगाकर बड़ो से आशीर्वाद लिया जाता हैं। होली में होली के पहले दिन रात में होलिका दहन किया जाता हैं। होलिका दहन में लकड़ियों का ढेर रख कर उसे जलाया जाता हैं। वही पर बैठ कर नगाड़ो और मजीरा वादक के साथ होली गीत गाया जाता हैं। फिर दूसरे दिन होली का रंग गुलाल लगाकर एक दूसरे को मुबारकबाद दिया जाता है। 

 

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होली क्यों मनाई जाती है 

 

        प्राचीन काल मे एक राक्षस था हिरण्यकश्यप उस समय वो राक्षसों का राजा था, ब्रह्मा से वरदान पाकर हिरण्यकश्यप मृत्यु से अभय हो गया और इतना घमंड हो गया कि अहंकारवश वह स्वयं को भगवान से भी बड़ा समझने लगा । उसने इंद्र का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों को प्रताड़ित करने लगा । हिरण्यकश्यप ने अपने राज्य में भगवान विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया और लोगों से कहा कि वे किसी और को नहीं बल्कि मेरी पूजा करें , मुझे भगवान मानें ।

 

 

 

हिरण्यकश्यप के एक पुत्र भी था प्रह्लाद , वह बचपन से ही भगवान विष्णु का बड़ा भक्त था । हिरण्यकश्यप ने जब पुत्र प्रहलाद को भगवान विष्णु का जाप करते देखा तो वह चीख उठा – बंद करो यह जाप । पिता के क्रोध के बावजूद प्रहलाद की विष्णु भक्ति बंद नहीं हुई , वह विष्णु का जाप करता रहा । प्रहलाद को विष्णु भक्ति से वंचित करने के लिए हिरण्यकश्यप ने कई तरह की प्रताड़नाएं दीं किन्तु प्रहलाद ने विष्णु भक्ति नहीं छोड़ी जिससे क्रोधित हो हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को अपने पास बुलाया ( होलिका को वरदान था कि अग्नि उसे नहीं जला सकती थी )

 

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हिरण्यकश्यप ने होलिका से कहा कि वह प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर जलती हुई अग्नि में बैठ जाए । भाई के आदेश पर जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो अपने वरदान का उपयोग अधर्म के लिए करने के कारण होलिका तो अग्नि में जलकर राख हो गई वहीं प्रहलाद भगवान विष्णु का नाम लेता हुआ अग्नि से बाहर निकल आया , उसे जरा भी आंच न आई । 

 

शास्त्रों के मुताबिक जिस दिन होलिका जली वह फाल्गुन माह की पूर्णिमा का दिन था । इसीलिए होली फाल्गुन माह की पूर्णिमा को मनाई जाती है ।

 

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