पितृ पक्ष का महत्व | पूर्वजों को श्राद्ध क्यों किया जाता है?

पितृ पक्ष का महत्व | पूर्वजों को श्राद्ध क्यों किया जाता है?

पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का पर्व श्राद्ध पक्ष का सनातन धर्म में विशेष महत्व हैं, इस अवसर पर अपने पितरों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के साथ ही उनके दिखाएं सन्मार्ग का अनुसरण करते हैं। तो चलिये आज इस आर्टिकल में जानते है कि पितृ पक्ष का महत्व क्या है? पूर्वजों को श्राद्ध क्यों किया जाता है?

पितृ पक्ष क्या है?

पितरपख या पितृ पक्ष 16 दिन की वह अवधि है जिसमें हिन्दू लोग अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं और उनके लिये पिण्डदान करते हैं। भाद्रपद की पूर्णिमा और अश्विन मास की कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को पितृ पक्ष कहते हैं।

पितृ पक्ष में क्या होता हैं? क्यों पूर्वजों की पूजा की जाती है?

ब्रह्मपुराण के अनुसार मनुष्य को देवताओं की पूजा करने से पहले अपने पूर्वजों की पूजा करनी चाहिए क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इससे देवता प्रसन्न होते हैं। इसी वजह से भारतीय समाज में बड़ों का सम्मान और मरणोपरांत पूजा की जाती है। ये प्रसाद श्राद्ध के रूप में होते हैं जो पितृपक्ष में पड़ने वाली मृत्यु तिथि (तारीख) को किया जाता है और यदि तिथि ज्ञात नहीं है, तो अश्विन अमावस्या की पूजा की जा सकती है जिसे सर्व प्रभु अमावस्या भी कहा जाता है। श्राद्ध के दिन हम तर्पण करके अपने पूर्वजों का स्मरण करते हैं और ब्राह्मणों या जरूरतमंद लोगों को भोजन और दक्षिणा अर्पित करते हैं।

पितृ पक्ष का महत्व पूर्वजों को श्राद्ध क्यों किया जाता है

पितृ पक्ष का महत्व

हिंदू धर्म के अनुसार, पूर्वजों की तीन पीढ़ियों की आत्माएं पितृलोक में निवास करती हैं, जो स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का स्थान माना जाता है। हिंदु महत्व यह क्षेत्र मृत्यु के देवता यम द्वारा शासित है, जो एक मरते हुए व्यक्ति की आत्मा को पृथ्वी से पितृलोक तक ले जाता है। जब अगली पीढ़ी का व्यक्ति मर जाता है, तो पहली पीढ़ी स्वर्ग में जाती है और भगवान के साथ फिर से मिल जाती है, इसलिए श्राद्ध का प्रसाद नहीं दिया जाता है। इस प्रकार पितृलोक में केवल तीन पीढ़ियों को श्राद्ध संस्कार दिया जाता है, जिसमें यम की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पवित्र हिंदू ग्रंथों के अनुसार, पितृ पक्ष की शुरुआत में, सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है।

श्राद्ध करने का समय क्या है?

श्राद्ध कर्म करने और ब्राह्मण भोजन का समय प्रातः 11:36 बजे से मध्याह्न 12:24 बजे तक का है। इस समय को कुतप वेला कहते हैं। यह समय मुख्य रूप से श्राद्ध के लिए प्रशस्त है।

पितृ पक्ष में श्राद्ध कब किया जाता है?

धर्मग्रन्थों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी तिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है। पूर्णिमा तिथि के दिन देहान्त होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारम्भ भी माना जाता है।

  • जिन कुंवारे बच्चों की मृत्यु तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध कुमार पञ्चमी के दिन किया जाता है।
  • जिन सौभाग्यवती स्त्रियों की मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं है, उनका श्राद्ध नवमी तिथि के दिन किया जाता है।
  • जिन संन्यासी, ब्रह्मचारी, यति की मृत्यु तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध द्वादशी तिथि के दिन किया जाता है।
  • शस्त्राघात, जलने, विष आदि से मृत्यु हुई हो या ब्रह्मघाती हुए हों, उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को करना चाहिए।
  • ज्ञात – अज्ञात सभी पितरों के निमित्त अमावस्या तिथि को श्राद्ध करना चाहिए।
  • मृत्यु तिथि से 2 वर्ष पूर्ण होने के बाद आश्विन मास के श्राद्ध पक्ष में मृत्यु तिथि वाली तिथि के दिन श्राद्ध में मिलाना चाहिए। (या अपने गोत्र, परंपरा या कुल पंडित द्वारा जो मार्गदर्शन दिया जाय उस तरह कार्य करे)

पितरों को श्राद्ध क्यों दिया जाता हैं?

श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न और तृप्त रहते हैं। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि पितरों को पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है। श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर सन्तुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि धर्मशास्त्रों में प्रत्येक गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है।

श्राद्ध किसे करना चाहिए?

पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिण्डों (एक ही परिवार के) को श्राद्ध करना चाहिए। एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है। पितृ पक्ष सोलह दिन की समयावधि होती है, जिसमें पुत्र या सगोत्र अपने पूर्वजों को भोजन अर्पण कर श्रद्धांजलि देते हैं।

श्राद्ध से जुड़ी पौराणिक कथा

जब महाभारत युद्ध में महान दाता कर्ण की मृत्यु हुई, तो उसकी आत्मा स्वर्ग चली गई, जहां उसे भोजन के रूप में सोना और रत्न चढ़ाए गए। हालांकि, कर्ण को खाने के लिए वास्तविक भोजन की आवश्यकता थी और स्वर्ग के स्वामी इंद्र से भोजन के रूप में सोने परोसने का कारण पूछा। इंद्र ने कर्ण से कहा कि उसने जीवन भर सोना दान किया था, लेकिन श्राद्ध में अपने पूर्वजों को कभी भोजन नहीं दिया था। कर्ण ने कहा कि चूंकि वह अपने पूर्वजों से अनभिज्ञ था, इसलिए उसने कभी भी उसकी याद में कुछ भी दान नहीं किया। संशोधन करने के लिए, कर्ण को 15 दिनों की अवधि के लिए पृथ्वी पर लौटने की अनुमति दी गई, ताकि वह श्राद्ध कर सके और उनकी स्मृति में भोजन और पानी का दान कर सके। इस काल को अब पितृ पक्ष के नाम से जाना जाता है।

पितृ पक्ष या श्राद्ध कर्म से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां

  • श्राद्धकर्म में गाय का घी, दूध या दही काम में लेना चाहिए। दस दिन के अन्दर बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए।
  • श्राद्ध में चॉंदी के बर्तनों का उपयोग व दान पुण्यदायक तो है ही, राक्षसों का नाश करने वाला भी माना गया है। पितरों के लिए चॉंदी के बर्तन में सिर्फ पानी ही दिया जाए तो वह अक्षय और तृप्तिकारक होता है। पितरों के लिए अर्घ्य, पिण्ड और भोजन के बर्तन भी चॉंदी के हों तो और भी श्रेष्ठ माना जाता है।
  • श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन दोनों हाथों से पकड़कर लाने चाहिए, एक हाथ से लाए अन्न पात्र से परोसा हुआ भोजन राक्षस छीन लेते हैं।
  • ब्राह्मण को भोजन ‘मौन रहकर’ एवं व्यञ्जनों की प्रशंसा किए बगैर करना चाहिए, क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं, जब तक ब्राह्मण मौन रहकर भोजन करें।
  • जो पितृ, शस्त्र आदि से मारे गए हों उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्दशी को भी करना चाहिए। इससे वे प्रसन्न होते हैं।
  • श्राद्ध गुप्त रूप से करना चाहिए। पिण्डदान पर कुदृष्टि पड़ने से वह पितरों तक नहीं पहुॅंचता है।
  • श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाना आवश्यक है, जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके घर में पितर भोजन नहीं करते हैं। वे शाप देकर लौट जाते हैं।
  • श्राद्ध में जौं, कांगनी, मटर और सरसों का उपयोग श्रेष्ठ रहता है। तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है। तिल वास्तव में पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं। कुशा (एक प्रकार की घास) राक्षसों से बचाती है।
  • दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। वन, पर्वत, पुण्यतीर्थ एवं मन्दिर दूसरे की भूमि पर श्राद्ध किया जा सकता है, क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं माना गया है।
  • चाहे मनुष्य देवकार्य में ब्राह्मण का चयन करते समय न सोचे, लेकिन पितृ कार्य में योग्य ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए, क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है।
  • जो व्यक्ति किसी कारणवश एक ही नगर में रहने वाली अपनी बहिन, दामाद और भाऩजे को श्राद्ध में भोजन नहीं कराता, उसके यहॉं पितर के साथ ही देवता भी अन्न ग्रहण नहीं करते।
  • श्राद्ध करते समय यदि कोई भिक्षुक आ जाए तो उसे आदरपूर्वक भोजन करवाना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसे समय में घर आए याच़क को भगा देता है उसका श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं माना जाता है।
  • धर्मग्रन्थों के अनुसार सायंकाल का समय राक्षसों के लिए होता है, यह समय सभी कार्यों के लिए निन्दित है। अत: शाम के समय श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए।
  • श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं। श्राद्ध के लिए कृष्णपक्ष श्रेष्ठ माना गया है।
  • जैसा कि रात्रि को राक्षसी समय माना गया है, रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। वैसे ही दोनों सन्ध्याओं के समय प्रातः काल व सायं भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। दिन के आठवें मुहूर्त्त (कुतपकाल) अपराह्न में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है।
  • श्राद्ध में ये चीजें होना महत्त्वपूर्ण हैं- गङ्गा जल, दूध, शहद, दौहित्र, कुश और तिल।
  • केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। सोने, चॉंदी, कांसे, ताम्बा,पीतल के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल उपयोग में लाई जा सकती है।
  • तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक चले जाते हैं। तुलसी से पिण्ड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक सन्तुष्ट रहते हैं।
  • रेशमी, कम्बल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। आसन में लोहा (स्टील) किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।
  • चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।

श्राद्ध करने वाले किसीभी व्यक्ति / परिवार को जो भी कार्य करे वो श्रद्धा पूर्वक कार्य करना चाहिए। किसी भी प्रकार के संशय से कार्य नही करना चाहिए। अगर कोई प्रश्न हो तो अपने कुलगुरुजी या नजदीक रहते पंडितजी से संपर्क करके मार्गदर्शन प्राप्त करे। अपने कुल के लोकाचार को भी ध्यान में रखे।

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