प्रेम के कितने रूप है, प्रेम के अलग अलग रूपो की विस्तृत जानकारी

प्रेम के कितने रूप है देखे प्रेम के अलग अलग रूपो को

प्रेम जीवन का आधार है। प्रेम एक एहसासों का बंधन है। प्रेम को अलग-अलग तरह से परिभाषित किया जा सकता है परन्तु समझने वालों के लिए प्रेम के मायने अलग-अलग होते हैं। कोई हवस को प्रेम समझता है तो कोई त्याग को प्रेम समझता है किसी की नजर में प्रेम जिम्मेदारी है तो किसी के नजर में बलिदान ही प्रेम है। तो आइए देखते हैं प्रेम के कितने रूप है, प्रेम के अलग अलग रूपो की पूरी जानकारी…

प्रेम के कितने रूप है, प्रेम के अलग अलग रूपो की विस्तृत जानकारी

मोह का प्रेम

वस्तुओं के प्रति, मकान के प्रति, सामानों के प्रति, स्थानों के प्रति जो हमारी पकड़ है वह भी प्रेम का ही एक स्थूल रूप है। जिसे हम कहते हैं मोह, यह मेरा सामान है, यह मेरा मकान, मेरी कार, मेरा फर्नीचर, मेरे गहने, यह जो मेरे की पकड़ है वस्तुओं के ऊपर, यह सर्वाधिक निम्न कोटि का प्रेम है। लेकिन है तो वह भी प्रेम ही, उसे इंकार नहीं किया जा सकता है कि वह प्रेम नहीं है। वह भी प्रेम है। राजनीति पद व शक्ति के प्रति प्रेम है, लोभ धन-संपत्ति के प्रति प्रेम है। यह सभी मोह वाला प्रेम हैं।

तन का प्रेम

तन का प्रेम एक ऐसा प्रेम है जो कामवासना का रूप ले लेता है। देह के प्रति प्रेम जो वासना का रूप ले लेता है। इसे तन का प्रेम कहते हैं। तन का प्रेम मोह का ही स्वरूप हैं।

मन का प्रेम

मन का प्रेम जिसे हम कहते हैं मैत्री भाव। यहाँ देह का सवाल नहीं है। वस्तु का भी सवाल नहीं है। मन आपस में मिल गए तो मित्रता हो जाती है। मन के तल का प्रेम, विचार के तल का प्रेम दोस्ती है। मन का प्रेम को भाव का प्रेम भी कह सकते है। क्योंकि मन का प्रेम मन के भाव से ही उत्पन्न होता हैं।

हृदय का प्रेम

सामान्यतः ही हृदय का प्रेम को ही भावनात्मक प्रेम कहते हैं। हृदय के तल पर प्रीति का भाव अपने बराबर वालों के साथ हृदय का जो संबंध है वो भाई-भाई के बीच, पति-पत्नी के बीच, पड़ोसियों के बीच होता है। इसके दो प्रकार और हैं जिसमे अपने से छोटों के प्रति वात्सल्य भाव है, स्नेह है। अपने से बड़ों के प्रति आदर का भाव है ये भी प्रीति के या हृदय के प्रेम का ही रूप हैं।

आत्मा का प्रेम

आत्मा का प्रेम श्रद्धा का ही रूप है। इसमें भी दो प्रकार हो सकते हैं। जब हमारी चेतना का प्रेम स्वकेंद्रित होता है तो उसका नाम ध्यान होता है और जब हमारी चेतना परकेंद्रित होती है, उसका नाम श्रद्धा होता है। गुरु के प्रति प्रेम श्रद्धा बन जाता है।

चेतना का प्रेम

चेतना के बाद छठवें तल का प्रेम घटता है जब हम ब्रह्म से, परमात्मा से परिचित होते हैं। वहाँ समाधि घटित होती है। तो इस समय जो प्रेम का एहसास होता है वो चेतना का प्रेम हैं। चेतना भी प्रेम का एक रूप है। जंहा वस्तुएं न रहीं, देह न रही वंहा विचारों के पार, भावनाओं के भी पार पहुंच जाए ऐसे पराभक्ति परमात्मा के प्रति भाव को चेतना का प्रेम कहते है।

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