मनुष्य का सामजिक जीवन
मनुष्य एक सामाजिक जीव है। जो समाज के बीच ही रहता है। वहीं उसे लोगों के बीच जीना पड़ता है। सामाजिक जीवन जीने के में पड़ोसियों के बहुत महत्व है। मनुष्य का सामाजिक जीवन किस प्रकार होता है या होना चाहिए, इसकेलिए आइये देखते हैं मनुष्य का सामाजिक जीवन किस प्रकार होना चाहिए।
इस जीवन में उसे पड़ोस से काफी वास्ता पड़ता है। व्यक्ति की पहचान उसके पड़ोस से ही होती है। हमें पड़ोस-धर्म का निर्वाह पूरे मन से करना चाहिए। पड़ोसी सुख-दुख का साथी होता है। हमारे रिश्तेदार तो बहुत बाद में आते हैं। यह हमारा पड़ोसी ही होता है जो तुरंत हमारे पास आता है तथा मुसीबत के समय हमारी सहायता करता है। पड़ोसी सबसे विश्वस्त साथी होता है। पड़ोसी के साथ बनाकर रहने में ही हमारी भलाई है।
मुसीबत, बीमारी तथा आवश्यकता के समय पड़ोसी ही काम आता है। समय पड़ने पर पड़ोसी हमें उचित सलाह देकर हमारा मार्ग प्रशस्त करता है। पड़ोसी एक प्रकार से हमारा सच्चा मित्र होता है। सच्चा मित्र या सच्चा पड़ोसी एक-दूसरे के पर्याय हैं। पड़ोसी निकटतम साथी होता है। वक्त पड़ने पर पड़ोसी ही हमारी मदद करता है।
पड़ोसी के साथ व्यवहार में हमें बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता है। पड़ोसी के साथ यदि थोड़ी-सी गलतफहमी हो जाए तो अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। पड़ोसी से दुश्मनी करना नितांत मूर्खता है। पड़ोसी की नाराजगी आपको काफी क्षति पहुँचा सकती है। पड़ोसी की छोटी-मोटी कमियों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। कमियाँ भला किसमें नहीं होतीं, हमें पड़ोसी की इच्छाइयों को ही देखना चाहिए। तभी हम पड़ोसी होने के धर्म का निर्वाह कर सकेंगे।
पड़ोसी का हमारे साथ संबंध जीवन भर रहता है। अतः इस संबंध को तनावपूर्ण नहीं बनाना चाहिए। अच्छा पड़ोसी खुशी एवं आनंद का कारण बनता है। पड़ोसी के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाकर रखने चाहिए। इसी में सुख-शांति निवास करती है। पड़ोस धर्म का निर्वाह करने में सहनशीलता की आवश्यकता होती है। इस धर्म के निर्वाह में कुछ त्याग भी करना पड़ता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में उसके मित्र भी होते हैं, शत्रु भी, परिचित मी, अपरिचित भी। जहाँ तक शत्रुओं, परिचितों और अपरिचितों का प्रश्न है, उन्हें पहचानना बहुत कठिन नहीं होता, किंतु मित्रों को पहचानना कठिन होता है। मुख्यतः सच्चे मित्रों को पहचानना बहुत कठिन होता है। यह प्रायः देखा गया है कि एक ओर तो बहुत से लोग अपने-अपने स्वार्थवश सम्पन्न, सुखी और बड़े आदमियों के मित्र बन जाते हैं या ज्यादा सही यह होगा कि यह दिखाना चाहते हैं कि वे मित्र हैं।
इसके विपरीत जहाँ तक गरीब, निर्धन और दुःखी लोगों का प्रश्न है मित्र बनाना तो दूर रहा, लोग उनकी छाया से भी दूर भागते हैं। इसीलिए कोई व्यक्ति हमारा वास्तविक मित्र है या नहीं, इस बात का पता हमें तब तक नहीं लग सकता जब तक हम कोई विपत्ति में न हों। विपत्ति में नकली मित्र तो साथ छोड़ देते हैं और जो मित्र साथ नहीं छोड़ते, वास्तविक मित्र वे ही होते हैं। इसीलिए यह ठीक ही कहा जाता है कि विपत्ति मित्रों की कसौटी है।
स्वस्थ, सुखी और संतुलित जीवन का मार्ग है संयम तथा संस्कारों को परिमार्जित करने का नाम भी यही है। यदि हमारे जीवन में स्वास्थ्य व संतुलन न हो तो जीवन सुचारु रूप से चल नहीं पाएगा और कोई भी मानव असंतुलित व अस्वस्थ जीवन जीना भी नहीं चाहेगा। जो हमारे मन व इंद्रियों को मलिन करें, ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए।
जब शरीर से अस्वस्थ होते हैं तो विचार करते हैं कि गलत खाने से तबियत बिगड़ जाएगी इसलिए अपाच्य भोजन मत ग्रहण करो। पर यहाँ हमारी चेतना और आत्मा की तबियत रोज बिगड़ रही है, तब कोई चिंता नहीं। हमारे भीतर से ही यह विचार आना चाहिए कि जैसे शरीर की फिक्र है वैसे ही चेतना के उत्थान और पतन के लिए मुझे ही सोचना है।
इंद्रियाँ घोड़े के समान हैं। घोड़े पर यात्रा करते समय उसकी लगाम हम हाथ में रखते हैं। इसी तरह जब हम पर सवार होते हैं, तब हमारे मन की लगाम हाथ में रहे तो सारा काम आसानी से हो सकता है। आवश्यकता है संस्कारों के परिष्कार की। यदि आप अपने स्वस्थ चरित्र और आदर्शों के बल पर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करेंगे तो यह संसार स्वय ही आपकी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करेगा।