अंग्रेजी शासन का प्रभाव | भारत मे अंग्रेजी शासन व्यवस्था

अंग्रेजी शासन का प्रभाव | भारत मे अंग्रेजी शासन व्यवस्था

क्या आप जानते है भारत पर लगभग 200 सालों तक राज करने वाले अंग्रेजी शासन का भारतीय जनजीवन पर क्या क्या प्रभाव पड़ा? कैसे अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा कर अपना प्रभाव डाला? अंग्रेजों में क्या क्या व्यवस्था बनाया था? उनकी शासन करने की क्या क्या नीतियां थी? अगर आप भी इन सवालों का जवाब जानना चाहते है तो आइये देखते है विस्तार से।

भारत पर अंग्रेजी शासन कैसे शुरू हुआ?

भारत मे अंग्रेज 1600 ई. में आये थे लेकिन 1757 ई. तक ईस्ट इंडिया कंपनी का उद्देश्य व्यापार करना था। वे भारत से कपड़ा मसाले आदि खरीदने के लिये अपने देश से सोना, चाँदी आदि लेकर आते थे। वे भारतीय सामान को विदेशों में बेचकर काफी मुनाफा कमाते थे मगर अपने देश का सामान भारतीय बाजारों में नहीं बेच पाते थे। इस एकतरफा व्यापार के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी की काफी आलोचना होने लगी।

इसी आलोचना के कारण कंपनी पर दबाव डाला गया कि वे व्यापार के लिए धन की व्यवस्था भारत से ही करें। इसके बाद अंग्रेजों में भारत पर भारत के ही धन का इस्तेमाल के लिए भारत पर अधिकार जमाना शुरू कर दिया और प्लासी और बक्सर के युद्धों के बाद बंगाल पर उनका अधिकार हो गया। बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा की दीवानी (भूमिकर) वसूल करने का अधिकार भी उन्हें प्राप्त हो गया।

इससे उन्हें अपने व्यापार के लिए जरूरी धन भारत से ही मिलने लगा। उन्हें अपने प्रशासनिक खर्चों तथा साम्राज्य विस्तार के लिए जरूरी धन की भी चिंता नहीं रहीं। उस समय भूमिकर किसी भी शासक के लिए आमदनी का प्रमुख स्रोत था इसलिए अँग्रेजों ने भी मुख्यतः भूमिकर पर ही अपना नियंत्रण बनाना प्रारंभ किया और इस प्रकार भारत पर अंग्रेजों का धीरे धीरे अधिकार होने लगा।

भारतीय जनजीवन पर अंग्रेजी शासन का व्यवस्था और उनके प्रभाव

अंग्रेजी शासन का प्रभाव | भारत मे अंग्रेजी शासन व्यवस्था

अंग्रेजों की कृषि नीति

अंग्रेजों ने शुरुआत में स्थानीय तौर पर प्रचलित कर व्यवस्था को ही चलाए रखा, बाद में उन्होंने कर निर्धारण और संग्रहण की अलग-अलग व्यवस्थाएँ बनाई। ये भारत के अलग-अलग प्रदेशों की सामाजिक व्यवस्था व शासन की जरूरतों के अनुसार तैयार की गई थीं ये जमीदारी, रैयतवाडी व महलवाडी बंदोबस्त प्रथाएँ थीं। शुरुआत में अंग्रेजों द्वारा लगान वसूली के लिए ठेकेदारी करने के अधिकार को नीलाम किया जाता था। जो सबसे अधिक पैसा जमा करने का वादा करता, उसे यह अधिकार दिया जाता था।

ठेकेदार का यह प्रयास होता था कि वह जल्दी से जल्दी किसानों से ज्यादा से ज्यादा लगान वसूल करे। ठेकेदारों को केवल अपने लगान की वसूली से मतलब रहता था। वे किसानों के हित अहित का ध्यान नहीं रखते थे। इसलिये अब अंग्रेजों ने एक-दो वर्ष की ठेकेदारी के स्थान पर पाँच साला बंदोबस्त शुरू किया। उन्हें लगा कि लम्बे समय तक ठेका देने से किसानों के शोषण में कुछ कमी होगी । अब वे नए ठेकेदारों की तुलना में पुराने जमींदारों को लगान देने लगे । इस तरह लगान वसूली की नीति में बार-बार परिवर्तन होते रहे।

स्थाई बंदोबस्त

अंग्रेज सरकार ने सन् 1789 में बंगाल प्रात से राजस्व वसूल करने के लिए जमींदारों के साथ समझौता किया जो स्थायी बंदोबस्त कहलाया। कार्नवालिस ने फैसला किया कि भू – राजस्व की वसूली जमीदारों के हाथ हो। जमींदार भू – राजस्व न दे सके तो उसकी जमींदारी जब्त करके उसकी जगह नए जमींदार को बिठा दिया जाएगा। बार – बार भू – राजस्व निर्धारण से बचने के लिए कार्नवालिस ने 1789-90 में देय भू-राजस्व के आधार पर जमींदारों को दस साल के लिए जमीन का मालिक मान लिया।

अब वे जमीन की खरीदी-बिक्री कर सकते थे एवं लगान न पटाने पर किसानों को जमीन से बेदखल भी कर सकते थे। कंपनी शासन के लिए भू – राजस्व आमदनी का प्रमुख स्रोत थी। इस व्यवस्था से कंपनी को आर्थिक स्थायित्व प्राप्त हो गया। इस कानून की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि लगान को कृषि के विकास और उत्पादन में वृद्धि बढाने या घटाने से जोड़कर नहीं देखा गया था, इसलिए जमींदार तो निश्चित लगान वसूलते रहे पर किसानों या सरकार को इससे अधिक फायदा नहीं हुआ।

रैयतवाड़ी व्यवस्था

इस व्यवस्था का मूल आधार लगान का किसान (रैयत) के साथ सीधे करार करना था। यह तय किया गया कृषि उत्पादन में हुए खर्च को निकालकर जो बचेगा उसका पचास प्रतिशत भू – राजस्व होगा। शुरू के दिनों में फसल और उसके मूल्य के घटने-बढ़ने से राजस्व का कोई तालमेल नहीं था। बम्बई और मद्रास प्रेसीडेंसी प्रांत में 30 वर्षों के लिए यह बंदोबस्त लागू किया गया। किसानों के साथ सीधे करार के बावजूद इस व्यवस्था से किसानों का शोषण होता रहा।

महलवाड़ी व्यवस्था

सन् 1833-43 ई . बीच अंग्रेज शासकों ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश में एक नई लगान व्यवस्था लागू की जिसमें पूरे गाँव (जिसे महल कहते थे) से लगान का बंदोबस्त किया जाता था, अर्थात् गाँव के सभी कृषक परिवारों पर लगान जमा करने की संयुक्त जिम्मेदारी थी। इसमें रैयत बंदोबस्त की तरह कृषि खर्च और किसानों के भरण-पोषण का खर्च निकालकर जो बचता था उसका लगभग आधा हिस्सा लगान के रूप में वसूल किया जाता था।

अंग्रेजी शासन का भारतीय जनजीवन पर प्रभाव

अंग्रेजों द्वारा लागू की गई इन लगान व्यवस्थाओं से किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ . क्योंकि अंग्रेजों द्वारा लागू प्रत्येक लगान की दर बहुत ऊंची तथा अनिवार्य थी, जिन्हें कृषि की आय से चुका पाना मुश्किल होता था। इसलिए किसानों को जमींदारों एवं साहूकारों से कर्ज भी लेना पड़ता था। नियत समय पर कर्ज न पटा सकने पर उनकी जमीन साहूकारों द्वारा हड़प ली जाती थी। परिणामस्वरूप किसानों की हालत बहुत खराब हो गई एवं शासन के प्रति असतोष की भावना पनपने लगी। इस प्रकार कुछ स्थानों पर किसानों ने कंपनी शासन के विरुद्ध विद्रोह भी किया।

दस्तकारी एवं शिल्प पर प्रभाव

कंपनी की प्रशासनिक व्यवस्था ऐसी थी कि भारतीय हस्तकला एवं शिल्पकारी धीरे-धीरे नष्ट होने लगी। भारतीय दस्तकारों एवं शिल्पियों को अपनी वस्तुएं कम दामों पर बेचने के लिए विवश किया गया उन पर भारी कर भी लगाया गया। इंग्लैंड से आनेवाली वस्तुओं को तटकर एवं चुंगीकर से मुक्त रखा गया था। इससे वे सस्ती हो गई।

इसका परीणाम ये हुआ कि भारतीय दस्तकारी एवं शिल्प विदेशी वस्तुओं के सामने नहीं टिक सकी। भारतीय कारीगर अपना व्यवसाय छोड़ने लगे और उनकी बस्तियों उजड़ गई। ढाका शहर का वस्त्र उद्योग, जिसके कारण वह भारत का मैनचेस्टर कहलाता था, नष्ट हो गया, मुर्शिदाबाद एवं सूरत के उद्योग भी नष्ट हो गए। कारीगर बेरोजगार हो गए और कृषि पर निर्भर हो गए। फलतः कंपनी शासन के प्रति उनमें असंतोष पनपने लगा।

वनों में रहनेवाले लोगों पर प्रभाव

अंग्रेजी शासन के दौरान भारत में वनोपजों पर आधारित नई – नई मिलों व कारखानों की स्थापना हुई। भारत के जंगलों में पाए जानेवाले मजबूत लकड़ियों का उपयोग रेलों की पटरियाँ बिछाए जाने के लिए किया जाता था। साथ ही इंग्लैण्ड की मिलों के लिए भी लकड़ियाँ भेजी जाती थीं। इससे वनों की कटाई में तेजी आ गई।

जंगलों में रहनेवाले आदिवासी, जो झूम – खेती करते थे, उन्हें पेड़ काटने आदि पर रोक लगा दी। इससे उनकी जीवन – शैली प्रभावित हुई। वे अंग्रेजी शासन के विरोध में उठ खड़े हुए अंग्रेजों ने भारतीय संसाधनों का भरपूर दोहन किया। उनका उद्देश्य इन कारखानों में उत्पादन कर भारत के बाजार में माल बेचना था ताकि उन्हें अधिकाधिक लाभ मिल सके।

उन दिनों ढाका, कृष्णनगर, बनारस, लखनऊ, आगरा, मुल्तान, लाहौर, सूरत, भड़ौच, अहमदाबाद आदि वस्त्र उद्योग के प्रमुख केन्द्र थे। गोवा, सूरत, मछलीपट्टनम चटगाँव, ढाका जहाज निर्माण के प्रमुख केंद्र थे। अंग्रेजों को भारत एवं इंग्लैंड में अपने उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता थी। इसे ध्यान में रखकर उन्होंने भारत के विभिन्न बंदरगाहों को जोड़नेवाली सड़कों का निर्माण एवं सुधार कार्य किया गया।

भारत में रेलवे की शुरुआत एक क्रांतिकारी परिवर्तन था। संचार एवं परिवहन के साधनों के विकास से देश के लोग एक दूसरे के संपर्क में आए एवं उन्होंने एक दूसरे की भावनाओं को समझा। इससे राष्ट्रीयता की भावना बढी इन्हीं दिनों सन् 1853 ई. में भारत में टेलीग्राम सुविधा प्रारंभ हुई एवं डाक व्यवस्था में सुधार कार्य हुए।

शिक्षा पर प्रभाव

कंपनी शासन के शुरू होने के समय भारत में प्राचीन शिक्षा व्यवस्था प्रचलित थी जिसमें संस्कृत, अरबी, फारसी, व्याकरण, साहित्य, धर्मशास्त्र, कानून, तर्कशास्त्र, ज्योतिष आदि विषयों का अध्ययन किया जाता था। भारतीय शासकों ने पाठशालाओं मकतबों को सरकारी जमीन दान पर दी थी। अंग्रेजों ने यह जमीन उनसे छीन ली। उन्होंने नई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। इनमें कलकता में फोर्ट विलियम कॉलेज, बनारस में संस्कृत कॉलेज आदि प्रमुख थे।

इन शिक्षा संस्थाओं में भारतीय भाषाओं के अलावा इतिहास, कानून, उर्दू, पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का अध्ययन होता था। ब्रिटिश शासकों ने भारत में शिक्षा के विकास के लिए 1833 के चार्टर एक्ट के आधार पर 1835 में मैकाले की शिक्षा नीति लागू की गई। इसमें मुख्य रूप से अंग्रेजी पढ़ाना और उनकी मानसिकता को शासन के पक्ष में करना था। राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारक नई शिक्षा के समर्थक थे। उनका मानना था कि नई शिक्षा के फलस्वरूप भारतीय ज्ञान – विज्ञान, स्वतंत्रता, समानता, जनतंत्र तथा राष्ट्रीय आंदोलनों को मदद मिलेगी।

प्रेस के जरिए लोगों पर प्रभाव

भारत में अंग्रेजी, बांग्ला, हिन्दी समाचार पत्र प्रकाशित होने लगे जिनका जनता पर व्यापक असर होने लगा। समाचार पत्रों पर नियंत्रण स्थापित करने के उद्देश्य से 1878 में भारत के तत्कालीन वायसराय लिटन ने वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पारित किया। इस समय के प्रसिद्ध समाचार पत्र द हिन्दू, द इंडियन मिरर, अमृत बाजार पत्रिका, केसरी, मराठा स्वदेश मिलन, प्रभाकर और इन्दु प्रकाश थे। इससे जनता में राष्ट्रीय चेतना जागृत हुई।

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