इतिहास की प्रमुख घटनाएं | इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाएं

इतिहास की प्रमुख घटनाएं | इतिहास की अनसुनी बातें | इतिहास की रोचक जानकारी

अगर इतिहास के पन्ने पलटे जाए तो ऐसी ऐसी घटनाओं का जिक्र होता है, जो कल्पना से परे हो। इतिहास के इन्ही प्रमुख घटनाओं में से कुछ के बारे में आज इस पोस्ट में चर्चा करेंगे, तो चलिए देखते है, इतिहास की प्रमुख घटनाएं कौन कौन से और किस प्रकार है।

इतिहास की प्रमुख घटनाएं

इस आर्टिकल की प्रमुख बातें

वैसे तो इतिहास काफी लंबा चौड़ा है अगर एक बार उसमें घुस जाएं तो निकल नही सकते, इसलिए हम आपको इतिहास में घटित कुछ प्रमुख घटनाएं है जिनके बारे में बता रहे तो आइए देखते विस्तार से इतिहास की प्रमुख घटनाएं कौन कौन से है।

इतिहास की प्रमुख घटनाएं इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाएं,

भारत में आर्यों का आगमन – 1500 ई०पू०

भारत में आर्यों का आगमन 1500 ई०पू० माना गया है। भारत में आर्य, भारत में जो शाखा आई थी वह शाखा अफगानिस्तान से होते हुये हिन्दूकुश पर्वत को पार कर के सप्तसिंधु क्षेत्र तथा यहीं पर ये लोग बस गये थे, आर्य सर्वप्रथम पंजाब एवं अफगानिस्तान में बसे थे। पंजाब के उत्तर पश्चिम में बस गए तथा बाद में गंगा के मैदानीय इलाकों में जहाँ इन्हे आर्यन् या इंडो- आर्यन् के नाम से जाना गया। आर्यों के द्वारा निर्मित सभ्यता” वैदिक सभ्यता” थी। आर्यों द्वारा विकसित सभ्यता ग्रामीण सभ्यता थी। आर्यों की बोल चाल की भाषा संस्कृत थी। मैक्समूलर ने आर्यों का मूल निवास स्थान मध्य एशिया को माना है। यह विश्व इतिहास की एक प्रमुख घटनाएं है।

महावीर का जन्म – 540 ई०पू०

महावीर स्वामी जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर थे तथा इनको जैन धर्म का “वास्तविक संस्थापक ” माना जाता है। इनके बचपन का नाम – बर्धमान था। इनका जन्म 540 ई०पू० में वैशाली के कुंडग्राम ( मुजफ्फरपुर – बिहार ) में हुआ था। महावीर स्वामी 30 वर्ष की आयु में तपस्या करने के लिय जृम्भिक ग्राम ( ऋजुपालिका नदी के किनारे ) में साल वृक्ष के नीचे कैवल्य अर्थात सर्वोच्च ज्ञान की प्राप्ति 42 वर्ष की अवस्था में हुई। महावीर स्वामी का तपकाल 12 वर्ष क था।

ज्ञान प्राप्त होने के बाद भगवान महावीर ने जन कल्याण के लिए उपदेश देना शुरू किया। महावीर स्वामी का उपदेश, महावीर ने अपने वचनों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर सबसे अधिक जोर दिया। अर्धमागधी भाषा में वे उपदेश करने लगे ताकि जनता उसे भलीभाँति समझ सके। इन्होंने अपने उपदेशों के माध्यम से दुनिया का मार्गदर्शन किया था, 523 ईसा पूर्व में इन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ था।

गौतम बुद्ध का जन्म – 563 ई०पू०

गौतम बुद्ध का जन्म गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी नामक स्थान पर बुद्ध का जन्म 563 हुआ था। गौतम बुद्ध एक महान दार्शनिक, वैज्ञानिक और समाज सुधारक थे, गौतम बुद्ध ने महावीर स्वामी की तरह अपने उपदेशों के माध्यम से दुनिया का मार्गदर्शन किया था। आज दुनिया भर में बौद्ध धर्म को मानने वाले इनके अनुयायी फैले हुए हैं। गौतम बुद्ध एक श्रमण थे, जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन हुआ।

सिकंदर का भारत पर आक्रमण – 326-325 ई०पू०

सिकन्दर मकदूनिया का शासक था, मेकदूनियाई शासक सिकंदर ‘अरस्तू’ का शिष्य था। वह बहुत महत्वाकांक्षी शासक था और विश्व विजय प्राप्त करना चाहता था। सिकंदर केवल 20 वर्ष की आयु में राजगद्दी पर बैठा था। विश्व विजय अभियान के दौरान 326 ई.पू.में उसने भारत पर आक्रमण किया, पुरू या पौरस से हाइडेस्पीज (झेलम) नदी के तट पर युद्ध हुआ। पराजित होने के बाद पुरू ने कहा- मेरे साथ अन्य राजाओं जैसा व्यवहार किया जाए सिकंदर के हमले के समय उत्तर भारत पर नंद राजवंश का शासन था।

सिकन्दर की भारत में सफलता के कारणों में भारत में केन्द्रीय सत्ता का अभाव उसकी विशाल सेना (श्रेष्ठ सेना) और विजय अभियान से भयभीत होकर तक्षशिला के शासक आंभी ने सिकंदर के सामने आत्मसमर्पण कर दिया तथा सहयोग प्रदान करने का वचन भी दे दिया। भारतीय शासकों का सहयोग प्रमुख है। भारत में पहली बार ग्रीकों (सिकन्दर) द्वारा सैनिक शासन की स्थापना की गयी।

अशोक द्वारा कलिंग पर विजय – 261 ई०पू०

कलिंग युद्ध 261 ईसा पूर्व में महान मौर्य साम्राज्य और कलिंग राज्य के बीच लड़ा गया था, जिसके परिणामस्वरूप अशोक ने कलिंग के राजा महा पद्मनाभन को हराकर कलिंग पर विजय प्राप्त की। कलिंग बहुत शक्तिशाली राजा था। मौर्य साम्राज्य कलिंग को एक खतरे के रूप में देखता है क्योंकि वे मध्य भारतीय प्रायद्वीप पर आक्रमण कर, मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र के बीच संचार बाधित कर सकते हैं। इसलिए अशोक कलिंग को जीतना चाहते थे।

इस विशाल युद्ध का परिणाम स्वरूप बड़े पैमाने पर जान – माल का नुकसान हुआ। इस युद्ध( लड़ाई )में लगभग 1,00,000 सैनिक मारे गए। कलिंग पर विजय के बाद इसे मौर्य साम्राज्य का पांचवां प्रांत बनाया गया। कलिंग युद्ध के बाद साम्राज्य में शांति और अहिंसा की एक नई नीति अपनाई गई।

विक्रम संवत् का आरम्भ – 58 ई०पू०

भारत में यह अनेकों राज्यों में प्रचलित पारम्परिक पंचाग में से एक है। विक्रम संवत् या विक्रमी भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित हिन्दू पंचांग है। प्रायः माना जाता है, कि विक्रमी संवत् का आरम्भ 57-58 ई.पू. में हुआ था। बारह महीने का एक वर्ष और सात दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत् से ही शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चन्द्रमा की गति पर रखा जाता है। यह बारह राशियाँ बारह सौर मास हैं। पूर्णिमा के दिन, चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है।

नेपाल के सरकारी संवत् के रुप मे विक्रम संवत् ही चला आ रहा है। इसमें चान्द्र मास एवं सौर नाक्षत्र वर्ष का उपयोग किया जाता ह। इस संवत् का आरम्भ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से और उत्तरी भारत में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है।

शक् संवत् का आरम्भ – 78 ई०पू०

शक संवत् का प्रारंभ जैनग्रन्थों के अनुसार विक्रमादित्य ( 57 ईसा पूर्व ) के उत्तराधिकारी को उसके 135 वें वर्ष में शकों ने पराजित कर उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में उन्होंने अपना संवत् चलाया जिसे “शक – संवत् ” कहा जाता है। किन्तु अधिकांश: यही स्वीकार किया जाता है, कि प्रसिद्ध कुषाण शासक कनिष्क ही इसका प्रवर्त्तक था। पहले इसका कोई नाम नहीं था तथा मात्र संख्या में इसका उल्लेख होता था। शक शासक पहले कुषाणों के अधीन थे।

हिजरी संवत् का आरम्भ – 622 ई०

हिजरी संवत् का आरम्भ 16 जुलाई, 622 ई० को हिजरी संवत का प्रारम्भ हुआ, क्योंकि उसी दिन हज़रत मुहम्मद साहब मक्का के पुरोहितों एवं सत्ताधारी वर्ग के दबावों के कारण मक्का छोड़कर मदीना की ओर कूच कर गये थे। ख़लीफ़ा उमर की आज्ञा से प्रारम्भ हिजरी संवत में 12 चन्द्र मास होते हैं। जिसमें 29 और 30 दिन के मास एक – दूसरे के बाद पड़ते हैं। वर्ष में 354 दिन होते हैं, फलतः यह सौर संवत के वर्ष से 11 दिन छोटा हो जाता है। इस अन्तर को पूरा करने के लिए 30 वर्ष बाद जिलाहिजा महीने में कुछ दिन जोड़ दिये जाते हैं।

फाह्यान की भारत यात्रा – 405-11 ई०

फाह्यान की भारत यात्रा, एक चीनी बौद्ध भिक्षु, यात्री, लेखक एवं अनुवादक थे, जो 405 ईसवी से लेकर 412 ईसवी तक भारत की यात्रा किया। श्रीलंका और आधुनिक नेपाल में स्थित गौतम बुद्ध के जन्मस्थल कपिलवस्तु धर्मयात्रा पर आए। उनका ध्येय यहाँ से बौद्ध ग्रन्थ एकत्रित करके उन्हें चीन ले जाना था। उन्होंने अपनी यात्रा का वर्णन अपने वृत्तांत में लिखा। चीनी भिक्षु की यात्रा के समय भारत में गुप्त राजवंश के चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का काल था और चीन में जिन राजवंश काल चल रहा था।

हर्षवर्धन का शासन – 606-647 ई०

हर्षवर्धन महान कुशल प्रशासक एवं प्रतापी होने से इस राज्य एक महान सेनानायक एवं कुशल प्रशासक थे। इसने 606 – 647 तक शासन किया था। हर्षवर्धन गुप्तोत्तर काल का शासक था जिसने आर्यावर्त पर शासन किया। हर्षवर्धन बैस क्षत्रिय वंश के थे। हर्षवर्धन का उसका छोटा भाई राज्यवर्धन, थानेसर पर शासन करता था। हर्षवर्धन बैस क्षत्रिय वंश के थे। भारतीय इतिहास ह्वेनत्सांग ने वर्णन किया कि हर्ष ने अपने शासनकाल की शुरुआत से कन्नौज पर शासन किया।

हेनसांग की भारत यात्रा – 630 ई०

ह्वेनसांग एक चीनी यात्री था, जिसने 630 और 614 ई. के बीच भारत यात्रा की। उसे यात्रियों में राजकुमार, नीति का पंडित और वर्तमान शाक्यमुनि कहा जाता है। उसका जन्म 600 ई. में हुआ था। ह्वेनसांग बीस वर्ष की आयु में वह भिक्षु बन गया था, वह पंजाब में भी आया और बुद्ध के जीवन से संबंधित स्थानों, जैसे कपिलवस्तु, बनारस, गया और कुशीनगर की उसने यात्रा की।

वह हर्षवर्द्धन के शासन काल में भारत आया था। वह भारत में 15 वर्षों तक रहा। उसने अपनी पुस्तक सी – यू- की में अपनी यात्रा तथा तत्कालीन भारत का विवरण लिखा है। उसके वर्णनों से हर्षकालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अवस्था का परिचय मिलता है। ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा विवरण के ऊपर एक ग्रंथ लिखा जिसे ‘सी – यू- की’ कहा जाता है। 664 ई. में ह्वेनसांग की मृत्यु हो गई।

सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण – 1025 ई०

सोमनाथ मंदिर, जिसे सोमनाथ मंदिर या देव पाटन भी कहा जाता है, प्रभास पाटन, वेरावल, गुजरात, भारत में स्थित एक हिंदू मंदिर है। यह हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है और माना जाता है कि यह शिव के बारह ज्योतिर्लिंग मंदिरों में से पहला है। कई मुस्लिम आक्रमणकारियों और शासकों द्वारा बार-बार नष्ट किए जाने के बाद, विशेष रूप से 11वीं शताब्दी में महमूद गजनी सन 1025 में लूटपाट के दौरान इन द्वारों को अपने साथ ले गया था। सोमनाथ मन्दिर के मूल मन्दिर स्थल पर मन्दिर ट्रस्ट द्वारा निर्मित नवीन मन्दिर स्थापित है। मंदिर का कई बार पुनर्निर्माण किया गया था। यह विश्व इतिहास की एक ऐसी प्रमुख घटनाएं है। जो हिन्दू मंदिर को बार बार लुटा गया।

तराईन का प्रथम युद्ध – 1191 ई०

तराइन का प्रथम युद्ध वर्ष 1191 ई. भारतीय शासक पृथ्वीराज चौहान और अरब आक्रांता मुहम्मद गौरी के बीच तराइन में युद्ध हुआ था, जिसमें मुहम्मद गौरी की हार हुई थी। 1186 में गजनवी वंश के अंतिम शासक से लाहौर की गद्दी छीन ली और वह भारत के हिन्दू क्षेत्रों में प्रवेश की तैयारी करने लगा। 1191 में उन्हें पृथ्वी राज तृतीय के नेतृत्व में राजपूतों की मिलीजुली सेना ने जिसे कन्नौज और बनारस वर्तमान में वाराणसी के राजा जयचंद का भी समर्थन प्राप्त था।

अपने साम्राज्य के विस्तार और सुव्यवस्था पर पृथ्वीराज चौहान की पैनी दृष्टि हमेशा जमी रहती थी। अब उनकी इच्छा पंजाब तक विस्तार करने की थी। किन्तु उस समय पंजाब पर मोहम्मद ग़ौरी का राज था। 1190 ई. तक सम्पूर्ण पंजाब पर मुहम्मद गौरी का अधिकार हो चुका था। पृथ्वीराज एक विशाल सेना लेकर पंजाब की और रवाना हो गया और गौरी ने भी युद्ध करने का निर्णय लिया। उसने अपनी सेना को नए ढंग से सुसज्जित किया और युद्ध के लिए चल दिया।
यह युद्ध “तराइन का प्रथम युद्ध “कहलाया ।

तराईन का द्वितीय युद्ध – 1192 ई०

तराइन का द्वितीये युद्ध 1192 ईसवी एक बार फिर मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण किया और तराइन के मैदान में पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध किया। इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को पराजय का सामना करना पड़ा। मुहम्मद गौरी अपने हार बरदास नहीं सका और पुन: युद्ध के लिए पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध किया।

गुलाम वंश की स्थापना – 1206 ई०

गुलाम वंश की स्थापना 1206 ईसवी कुतुबद्दीन ऐबक द्वारा भारत में गुलाम वंश की स्थापना की गई। कुतुबद्दीन ऐबक मुहम्मद गौरी का एक गुलाम सैनिक था, जिसे गौरी ने भारत में विजय के बाद यहां का बादशाह बनाया था। भारतीय उपमहाद्वीप पर ग़ौरी साम्राज्य का बहुत विस्तार किया, इस वंश का दिल्ली पर 1290 ईसवी तक शासन रहा।

वास्कोडिगामा का भारत आगमन – 1498 ई०

भारत देश की खोज सबसे पहले वास्कोडिगामा ने 1498 की थी। जो की पुर्तगाल का रहने वाला था जो व्यापार के उद्देश्य व इसाई धर्म से प्रभावित होकर व्यापार के उद्देश्य से भारत आया था। पुर्तगालीयों ने व्यापार के नए व्यापारिक मार्गों की खोज करना आरंभ कर दिया। इस कार्य में यूरोप के कई महत्वाकांक्षी शासकों एवं रानियों ने भी उन्हें पर्याप्त सहयोग प्रदान किया।

कुतुबनुमा (दिशाओं का ज्ञान करने वाला यंत्र) के आविष्कार के बाद नाविकों ने की सहायता से लम्बी – लम्बी समुद्री यात्राएँ कीं। पुर्तगाली नाविक वास्कोडीगामा भी अपनी लम्बी जल यात्रा के दौरान अफ्रीका के दक्षिणी छोर (उत्तमांशा अंतरीप या Cape of good hope ) से होते हुए 20 मई सन् 1498 ई. को भारत के पश्चिमी समुद्र तट पर कालीकट (केरल) बंदरगाह तक पहुँच गया। वास्कोडिगामा भारत से मसाला, कपडे, नील आदि वस्तुए बहुत कम किमतो में खरीदकर युरोप में उचे दमो में बचता था, पुर्तगालियो को अतिधीक लाभ होता था। यह विश्व इतिहास की एक प्रमुख घटनाएं है।

पानीपत का प्रथम युद्ध – 1526 ई०

पानीपत का प्रथम युद्ध अप्रैल 1526 पानीपत के निकट लड़ा गया था। पानीपत के प्रथम युद्ध ने ही भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी। 1526 में इन्होंने पानीपत के मैदान में दिल्ली सल्तनत के अंतिम सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी। पानीपत वह स्थान है, जहाँ बारहवीं शताब्दी के बाद से उत्तर भारत पर नियंत्रण को लेकर कई निर्णायक लड़ाइयाँ लड़ी गईं।

यह उन पहली लड़ाइयों में से एक थी जिसमें मुगलों ने बारूद, आग्नेयास्त्रों और तोपों का प्रयोग किया। पानीपत का प्रथम युद्ध ज़हीर – उद्दीन बाबर और दिल्ली के लोदी वंश के सुल्तान इब्राहिम लोदी के बीच लड़ा गया था। इस युद्ध में ज़हीर – उद्दीन बाबर ने लोदी को परास्त किया था। बाबर ने 1527 में ख़ानवा, 1528 में चंदेरी तथा 1529 में घग्गर जीतकर अपने राज्य को सुरक्षित किया।

पानीपत का द्वितीय युद्ध – 1556 ई०

दूसरा पानीपत युद्ध 5 नवंबर, 1556 को उत्तर भारत के हिंदू शासक सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य ( लोकप्रिय नाम- हेमू ) और अकबर की सेना के बीच पानीपत के मैदान में लड़ा गया था। (अकबर के सेनापति खान जमान और बैरम खान) इस युद्ध में अकबर के सेनापति खान जमान और बैर खान की जीत हुई। फलस्वरूप दिल्ली पर वर्चस्व के लिये मुगलों और अफगानों के बीच चले संघर्ष में अंतिम निर्णय मुगलों के पक्ष में हो गया और अगले तीन सौ वर्षों तक सत्ता मुगलों के पास ही रही।

पानीपत का तृतीय युद्ध – 1761 ई०

पानीपत का तृतीय युद्ध 14 जनवरी, 1761 को पानीपत में दिल्ली से लगभग 60 मील उत्तर में मराठा साम्राज्य और अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली जिसे अहमद शाह दुर्रानी भी कहा जाता है , के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध में दोआब के रोहिला अफगान और अवध के नवाब शुजा – उद – दौला ने अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया। यह युद्ध कई दिनों तक चली और इसमें लगभग 125,000 से अधिक सैनिकों को शामिल किया गया । दोनों तरफ की सेनाओं को हुए नुकसान व फायदे के साथ ही यह युद्ध लंबे समय तक चला। अहमद शाह दुर्रानी के नेतृत्व में सेना कई मराठा पक्षों का खात्मा करने के बाद विजयी हुई।

अकबर का राज्यारोहण – 1556 ई०

अकबर तीसरा मुगल राजपूत शासक जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक था। अकबर को अकबर – ऐ आज़म (अर्थात अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था।

बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था, अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे, और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। अकबर के शासन के अंत तक 1605 में मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था।

बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू – मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन ए – इलाही नामक धर्म की स्थापना की। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने। अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायुं की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा था।

हल्दी घाटी का युद्ध – 1576 ई०

हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून 1576 को मेवाड़ के महाराणा प्रताप का समर्थन करने वाले घुड़सवारों और धनुर्धारियों और मुगल सम्राट अकबर की सेना के बीच लडा गया था। जिसका नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह प्रथम ने किया था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप को मुख्य रूप से भील जनजाति का सहयोग मिला, सेना में 5,000 पुरुष शामिल थे, जिसमें मुग़ल और राजपूत दोनों शामिल थे। दोनों पक्षों के पास युद्ध के हाथी थे।

दीन-ए-इलाही धर्म की स्थापना – 1582 ई०

दीन – ए – इलाही धर्म की स्थापना 1582 ईस्वी में मुगल सम्राट अकबर द्वारा एक धर्म था, जिसमें सभी धर्मों के मूल तत्वों को डाला गया था। इसमे प्रमुख हिंदू एवं इस्लाम धर्म सम्मलित थे। इनके अलावा पारसी, जैन के मूल विचारों को भी सम्मलित किया। हाँलाँकि इस धर्म के प्रचार के लिए उसने ज्यादा कुछ नही किया केवल अपने विश्वस्त लोगों को ही इसमें सम्मलित किया। बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू – मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन ए – इलाही नामक धर्म की स्थापना की।

प्लासी का युद्ध – 1757 ई०

प्लासी का युद्ध रोबर्ट क्लाईब के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने भारत विजय अभियान शुरू किया। इसके पहले चरण में ब्रिटिश सेना के नायक रोबर्टक्लाईब ने बंगाल पर आक्रमण किया, और मुर्शिदाबाद के नजदीक प्लासी के मैदान बंगाल के सिराजुदौला की सेना के साथ उसका युद्ध हुआ। इस युद्ध में सिराजुदौला की हार हुई, और बंगाल पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया। यह प्लासी का युद्ध कहलाया। यह विश्व इतिहास की एक ऐसी प्रमुख घटनाएं है। जिससे अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा करना शुरू कर दिया।

बक्सर का युद्ध – 1764 ई.

बक्सर का युद्ध 22 अक्टूबर 1764 ई. में बक्सर नगर के आसपास बंगाल के नबाब मीर कासिम, अवध के नबाब शुजाउद्दौला, तथा मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना अंग्रेज कम्पनी से लड़ रही थी। लड़ाई में अंग्रेजों की जीत हुई। बक्सर का युद्ध में असैनिक लोग मारे गए। लड़ाई में मारे गए एवं घायलों की संख्या भी करोड़ों में थी और इसके परिणाम में पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा और बांग्लादेश का दीवानी और राजस्व अधिकार अंग्रेज कम्पनी के हाथ चला गया।

बंगाल में स्थायी बंदोबस्त – 1793 ई०

बांग्ला या बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त ईस्ट इंडिया कंपनी और बंगाली मकान मालिकों के बीच समझौता सुधार के लिए कंपनी सरकार ने लार्ड कार्नवालिस को स्थायी सुधार के लिए नियुक्त किया। स्थायी बंदोबस्त अथवा इस्तमरारी बंदोबस्त ईस्ट इण्डिया कंपनी और बंगाल के जमींदारों के बीच कर वसूलने से सम्बंधित एक स्थाई व्यवस्था हेतु सहमति समझौता था, जिसे बंगाल में लार्ड कार्नवालिस द्वारा 22 मार्च 1793 को लागू किया गया, जो बंगाल में स्थायी बंदोबस्त के नाम से जाना गया।

बंगाल में प्रथम विभाजन – 1905 ई०

बंगाल में प्रथम विभाजन वर्ष 1905 ई० हुआ था जो बंगाल में प्रथम विभाजन के नाम से जाना गया। अंग्रेजी सरकार ने बांटो और शासन करो की नीति के अंतर्गत बंगाल को हिन्दू और मुस्लिम बहुल इलाके के आधार पर दो भागों- पूर्वी बंगाल और पश्चिम बंगाल में विभाजित किया। अँग्रेजों ने इस विभाजन को प्रशासनिक सुविधा बताया किंतु उनका उद्देश्य राष्ट्रवाद की भावना को कमजोर करना था। बंगाल प्रांत के विभाजन के पीछे वायसराय कर्जन का वास्तविक उद्देश्य हिन्दुओं एवं मुसलमानों में फूट डालकर राष्ट्रीय आंदोलन की भावना को कमजोर बनाना था।

भारतीय राष्ट्रीयता की भावन को कमजोर करने का प्रयास किया। तत्कालीन वायसराय कर्जन ने उस समय देश के सबसे बड़ बंगाल प्रांत का अक्टूबर 1905 में विभाजन कर दिया। क्षेत्रफल की दृष्टि से बंगाल भारत का बड़ा प्रांत था। इसमें बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा का भी समावेश था।

मुस्लिम लीग की स्थापना – 1906 ई०

अंग्रेजों की भारतियो में फूट डालो नीति के कारण ढाका के नवाब सलीमुल्ला खा की मेजबानी 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना कर दिया। यह विश्व इतिहास की एक ऐसी प्रमुख घटनाएं है। जो भारत को तीन हिस्सों में बांट दिया।

मार्ले – मिन्टो सुधार – 1909 ई०

मार्लेमिन्टो सुधार 1909 ब्रिटिश संसद द्वारा पारित एक अधिनियम था, जिसे स्वशासित शासन प्रणाली स्थापित करने के लक्ष्य से पारित किया गया था। ब्रिटिश सरकार द्वारा इन सुधारों को प्रस्तुत करने के पीछे मुख्य दो घटनायएँ थीं। इसके पहले अक्टूबर 1906 में आगा खां के नेतृत्व में मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल वायसराय लार्ड मिन्टो से मिला था और मांग की कि मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था की जाए तथा मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाये। प्रतिनिधिमंडल ने तर्क दिया कि उनकी साम्राज्य की सेवा के लिए उन्हें पृथक सामुदायिक प्रतिनिधित्व दिया जाये।

मार्ले – मिन्टो सुधार वर्ष 1909 में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित एक अधिनियम था, यह भारत परिषद अधिनियम ( इंडिया कॉउंसिल्स एक्ट ), वर्ष 1909 में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित एक अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस समय मार्ले भारत के राज्य सचिव एवं लार्ड मिन्टो भारत के वायसरॉय थे। इन्हीं दोनों के नाम पर इसे मार्ले – मिन्टो सुधारों की संज्ञा दी गयी।

प्रथम विश्वयुद्ध – 1914 -18 ई०

यह विश्व इतिहास की एक प्रमुख घटनाएं है। जो एक बहुत छोटी – सी घटना से इस युद्ध की शुरुआत हुई। ऑस्ट्रिया – हंगरी साम्राज्य की नज़र अपने एक छोटे – से पड़ोसी देश सर्बिया पर थी, जिसे वह अपने राज्य में मिलाना चाहता था। इससे सर्बिया के राष्ट्रवादी लोग नाराज़ थे। वे ऑस्ट्रिया को सबक सिखाना चाहते थे, ताकि वह उन पर हमला न करे। एक ऐसे ही राष्ट्रवादी सर्बियाई ने जून सन् 1914 के दिन सारजेवो नामक जगह पर ऑस्ट्रिया के राजकुमार और उनकी पत्नी की गोली मारकर हत्या कर दी।

इस हत्या का बदला लेने के लिए ऑस्ट्रिया ने सर्बिया पर हमला बोल दिया। सर्बिया की मदद के लिए रूस, और ऑस्ट्रिया की मदद के लिए जर्मनी युद्ध में उतरे। और देखते – देखते फ्रांस, ब्रिटेन आदि देश भी इस युद्ध में खिंचते चले गए। यह युद्ध सन् 1914 – 1918 तक चला। इस युद्ध में सभी देशो ने भाग लिया इस लिए यह “प्रथम विश्व युद्ध” कहलया।

प्रथम विश्व युद्ध उस समय तक विश्व में हुए सभी युद्धों से अधिक भयावह था। इसके परिणाम केवल यूरोप को ही प्रभावित करने वाले नहीं थे, वरन सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित करने वाले थे। इस युद्ध में अपार धनजन की हानि, इस युद्ध में लड़ने वालों की संख्या विस्मयकारी थी। विभिन्न अनुमानों के अनुसार 45 करोड़ से भी अधिक लोग इस युद्ध से प्रभावित हुए। लड़ाई में मारे गए एवं घायलों की संख्या भी करोड़ों में थी इसमें लाखों भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश सेनाओं की ओर से लड़ने के लिए भेजा गया था। हवाई हमलों, अकालों का और महामारी से भारी संख्या में असैनिक हानि हुई, लोग मारे गए।

द्वितीय विश्वयुद्ध – 1939 – 45 ई०

द्वितीय विश्व युद्ध 1 सितंबर , 1939 को द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हुआ और 14 अगस्त, 1945 को इसका अंत हुआ। इतना व्यापक युद्ध विश्व के इतिहास में पहले और आज तक नहीं लड़ा गया। इस युद्ध में भी प्रथम विश्व युद्ध की तरह द्वितीय विश्व युद्ध भी था ।इस युद्ध में सभी देशो ने भाग लिया था। हिटलर द्वारा पोलैण्ड पर आक्रमण द्वितीय महायुद्ध का तात्कालिक कारण था।

इस युद्ध में अनेक नए हथियारों का उपयोग किया गया जिसमें मशीनगन, टैंकों का प्रयोग किया था। प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम में लाखों सैनिक मारे गए। युद्ध में अपार धन की हानि हुई, घायलों की संख्या भी करोड़ों में थी, सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित करने वाले इस युद्ध में लड़ने वालों की संख्या विस्मयकारी थी। यह विश्व इतिहास की एक प्रमुख घटनाएं है। जिसमें परमाणु बम जैसे विनाशकारी हत्यारों की उपयोग किया गया।

असहयोग आंदोलन – 1920 – 22 ई०

असहयोग आंदोलन महात्मा गांधी के देखरेख में चलाया जाने वाला प्रथम जन आंदोलन था। इसकी स्थापना 5 सितंबर, 1920 को महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ( INC ) द्वारा की गई थी। 1920 में असहयोग आंदोलन की स्थापना हुई। असहयोग गतिविधि गांधी का पहला जन राजनीतिक आंदोलन था। पार्टी ने सितंबर 1920 में कलकत्ता में कांग्रेस के अधिवेशन में असहयोग कार्यक्रम शुरू किया गया था। असहयोग आंदोलन 1920 – 1922 तक चला।

साइमन कमीशन का आगमन – 1928 ई०

साइमनआयोग सात ब्रिटिश सांसदो का समूह था , जिसका गठन 8 नवम्बर 1927 में भारत में संविधान सुधारों के अध्ययन के लिये किया गया था। 3 फरवरी 1928 में साइमन कमीशन भारत आया। जिससे भारतीय आंदोलनकारियों में साइमन कमीशन वापस जाओ के नारे लगाए और जमकर विरोध किया। साइमन कमीशन के विरुद्ध होने वाले इस आंदोलन में कांग्रेस के साथ साथ मुस्लिम लीग ने भी भाग लिया।

साइमन कमीशन सात ब्रिटिश सांसद का समूह था, जिसका गठन 1927 में भारत में संविधान सुधारों के अध्ययन के लिये किया गया था। इसे साइमन आयोग ( कमीशन ) इसके अध्यक्ष सर जोन साइमन के नाम पर कहा जाता है।

दांडी मार्च नमक सत्याग्रह – 1930 ई०

दांडी यात्रा या नमक सत्याग्रह , महात्मा गांधी के नेतृत्व में औपनिवेशिक भारत में अहिंसक सविनय अवज्ञा का एक कार्य था। गांधी ने मार्च की शुरुआत अपने 78 भरोसेमंद स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह की थी। 390 किमी. साबरमती आश्रम से दांडी तक, रास्ते में भारतीयों की बढ़ती संख्या उनके साथ जुड़ गई। गांधी ने 6 अप्रैल 1930 को सुबह 8:30 बजे ब्रिटिश राज नमक कानूनों को तोड़ा, तो इसने लाखों भारतीयों द्वारा नमक कानूनों के खिलाफ बड़े पैमाने पर सविनय अवज्ञा के कृत्यों को जन्म दिया। मार्च 12 मार्च 1930 से 6 अप्रैल 1930 तक ब्रिटिश नमक एकाधिकार के खिलाफ कर प्रतिरोध और अहिंसक विरोध के प्रत्यक्ष कार्रवाई अभियान के रूप में चला।

गाँधी इरविन समझौता – 1931 ई०

गाँधी इरविन समझौता – 1931 ई० वाइसराय लार्ड इरविन के बीच एक राजनैतिक समझौता जिसे गांधी – इरविन समझौता ( Gandhi Irwin Pact ) कहते हैं। यह समझौता इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि पहली बार ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के साथ समानता के स्तर पर समझौता किया।

इस समझौते में लार्ड इरविन ने स्वीकार किया कि हिंसा के आरोपियों को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक बन्दियों को रिहा कर दिया जाएगा। भारतीयों को समुद्र किनारे नमक बनाने का अधिकार दिया जाएगा। इसे “दिल्ली पेक्ट” भी कहते हैं। वायसराय लार्ड इरविन एवं महात्मा गांधी के बीच 5 मार्च 1931 को गाँधी – इरविन समझौता सम्पन्न हुआ

कैबिनेट मिशन का आगमन – 1946 ई०

कैबिनेट मिशन का भारत आगमन -1946 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने भारत में एक तीन सदस्यीय उच्च स्तरीय शिष्टमंडल भेजने की घोषणा की। 1946 संविधान सभा की रचना हुई। कैबिनेट मिशन दिल्ली आया 24 मार्च 1946 कैबिनेट मिशन अपने प्रस्ताव को प्रस्तुत किया। 16 मई 1946 कैबिनेट मिशन का उद्देश्य – संविधान सभा का गठन करना यह मुख्य उद्देश्य था, इस मिशन को विशिष्ट अधिकार दिये गये थे। संविधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन जनता के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से होगा, संविधान सभा में कुल 389 सदस्य होंगे इनमें से 296 सदस्य निर्वाचित होंगे और 93 में सदस्य मनोनीत होंगे जिसमें 14 सदस्य राजस्थान से सम्मिलित थे।

महात्मा गांधी की हत्या – 1948 ई०

मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 की शाम को नई दिल्ली स्थित बिड़ला भवन में गोली मारकर की गयी थी। वे रोज शाम वहां प्रार्थना किया करते थे। 30 जनवरी 1948 की शाम जब वे संध्याकालीन प्रार्थना के लिए जा रहे थे तभी नाथूराम गोडसे उनके पैर छूने का अभिनय करते हुए उनके सामने गए और उन पर बैरेटा पिस्तौल से तीन गोलियाँ दाग दीं। उस समय गांधी अनुचरों से घिरे हुए थे। मोहनदास करमचंद गांधी के मुख से आखिरी शब्द हे! राम था, वह राम कहकर भगवान को प्यारे हो गए। यह विश्व इतिहास की एक ऐसी प्रमुख घटनाएं है। जिसने एक महात्मा को खो दिया।

चीन का भारत पर आक्रमण 1962 ई०

भारत – चीन युद्ध जो भारत चीन सीमा विवाद के रूप में भी जाना जाता है, चीन और भारत के बीच 1962 में हुआ एक युद्ध था। भारत चीन सीमा पर हिंसक घटनाओं की एक श्रृंखला शुरू हो गयी। भारत ने फॉरवर्ड नीति के तहत मैकमोहन रेखा से लगी सीमा पर अपनी सैनिक चौकियाँ रखी जो 1959 में चीनी प्रीमियर झोउ एनलाई के द्वारा घोषित लाइन ऑफ एक्चुअल के कंट्रोल के पूर्वी भाग के उत्तर में थी । चीनी सेना ने 20 अक्टूबर 1962 को लद्दाख में और मैकमोहन रेखा के पार एक साथ हमले शुरू किये।

1962 के भारत – चीन युद्ध के दौरान, अरुणाचल प्रदेश के आधे से भी ज़्यादा हिस्से पर चीनी पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने अस्थायी रूप से कब्जा कर लिया था। फिर चीन ने एक तरफ़ा युद्ध विराम घोषित कर दिया और उसकी सेना मैकमहोन रेखा के पीछे लौट गई । इस प्रकार की परिस्थिति ने दोनों पक्षों के लिए समस्याएँ प्रस्तुत की।

भारत – पाक युद्ध – 1965 ई०

1965 का भारत – पाक युद्ध यह युद्ध भारत – पाकिस्तान के बीच दूसरा युद्ध ऑपरेशन जिब्रॉल्टर के साथ शुरू हुआ , जिसके अनुसार पाकिस्तान की योजना जम्मू कश्मीर में सेना भेजकर वहां भारतीय शासन के विरुद्ध विद्रोह शुरू करने की थी। इसके जवाब में भारत ने भी पश्चिमी पाकिस्तान पर बड़े पैमाने पर सैन्य हमले शुरू कर दिए। सत्रह दिनों तक चले इस युद्ध में हज़ारों की संख्या में जनहानि हुई थी। आख़िरकार सोवियत संघ और संयुक्त राज्य द्वारा राजनयिक हस्तक्षेप करने के बाद युद्ध विराम घोषित किया गया।

ताशकंद- समझौता – 1966 ई०

ताशकंद – समझौता – 1966 ई. इस समझौते के अनुसार यह तय हुआ कि भारत और पाकिस्तान अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अपने झगड़ों को शान्तिपूर्ण ढंग से तय करेंगे। यह समझौता भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री तथा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अयूब खान की लम्बी वार्ता के उपरान्त 11 जनवरी 1966 ई. को ताशकंद सोवियत संघ, वर्तमान उज्बेकिस्तान में हुआ था।

समझौते का प्रारूप इस समझौते के क्रियान्वयन के फलस्वरूप दोनों पक्षों की सेनाएँ उस सीमा रेखा पर वापस लौट गईं, परन्तु इस घोषणा से भारत पाकिस्तान के दीर्घकालीन सम्बन्धों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। फिर भी ताशकंद घोषणा इस कारण से याद रखी जाएगी कि इस पर हस्ताक्षर करने के कुछ ही घंटों बाद भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की दुखद मृत्यु हो गई थी।

तालिकोटा का युद्ध – 1565 ई०

तालिकोट का युद्ध 23 जनवरी 1565 ई. दक्कन के सल्तनतों और विजयनगर साम्राज्य के बीच लड़ा गया था। इस युद्ध में विजय नगर साम्राज्य को हार का सामना करना पड़ा। तालीकोटा की लड़ाई के पश्चात् दक्षिण भारतीय राजनीति में विजय नगर राज्य की प्रमुखता समाप्त हो गयी। यद्यपि विजय नगर की हार के कारण, दक्कन की सल्तनतों की तुलना में विजय नगर के सेना में घुड़सवार सेना की कम संख्या थी।

प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध – 1766 – 69 ई०

मैसूर राज्य में चकियाँ कृष्णराय नाम के शासक का राज्य था जो कि वोडियार वंश से था। हैदर अली शासक का राज्य सेना पति था जो बहुत बहादुर था। प्रथम मैसूर युद्ध अंग्रेजो और हैदर अली के बीच 1766 से 1769 ई. तक हुआ, जिसका कारण मद्रास में अंग्रेज़ों की आक्रामक नीतियाँ थीं । मैसूर राज्य वर्तमान कर्नाटक का राज्य। प्रथम आंग्ल – मैसूर युद्ध का कारण हैदरअली द्वारा अंग्रेजों को कर्नाटक से भगाने की महत्त्वाकांक्षा रखना, हैदरअली द्वारा और अंग्रेजों के साथ युद्ध की घोषणा की गई। प्रथम आंग्ल – मैसूर युद्ध का घटनाक्रम हैदर की अंग्रेजों पर विजय हुआ था।

द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध – 1780- 84 ई०

द्वितीय आंग्ल – मैसूर युद्ध का हैदरअली की हार हुई। हैदर अधिकृत एक फ्रांसीसी ठिकाने पर अंग्रेजों द्वारा कब्जा कर लिया गया। अंग्रेजों के विरुद्ध हैदर 1779 ई० में मराठों एवं निज़ाम के साथ संधि कर ली 1784 ई० में लॉर्ड मैकार्टनी ( मद्रास के गवर्नर ) एवं टीपू के बीच मार्च में मंगलौर की संधि हुई। कारण अंग्रेजों द्वारा परस्पर संदेह करना। 1717 ई० में हैदर पर मराठों द्वारा आक्रमण करने पर अंग्रेजों द्वारा रक्षात्मक संधि की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया गया। अमेरिकन स्वतंत्रता युद्ध के समय अंग्रेजों एवं फ्रांसीसियों के बीच शत्रुता बढ़ गई।

तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध – 1790- 92 ई०

तृतीय आंग्ल – मैसूर युद्ध का अंग्रेजों द्वारा निजाम एवं मराठों के साथ टीपू के विरुद्ध संधि कर ली गई । टीपू ने विभिन्न आंतरिक सुधारों द्वारा अपनी स्थिति को मजबूत करने में सफलता प्राप्त की 1792 ई० फरवरी में कार्नवालिस द्वारा श्रीरंगपटनम पर विजय प्राप्त करना। मार्च 1792 ई ० में श्रीरंगपटनम की संधि के साथ युद्ध की समाप्ति। तृतीय आंग्ल – मैसूर युद्ध 1790- 92 ई० चला।

चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध – 1799 ई०

चौथा आंग्ल – मैसूर युद्ध, 1798-99 में दक्षिण भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और हैदराबाद- दक्कन के खिलाफ मैसूर साम्राज्य के बीच एक संघर्ष था। अंग्रेजों ने मैसूर की राजधानी पर कब्जा कर लिया। युद्ध में शासक टीपू सुल्तान की मौत हो गई। यह आंग्ल – मैसूर के हुए युद्धों में चौथी और अंतिम लड़ाई थी।

कारगिल युद्ध – 1999 ई०

कारगिल युद्ध, जिसे ऑपरेशन विजय के नाम से भी जाना जाता है, भारत और पाकिस्तान के बीच मई और जुलाई 1999 के बीच कश्मीर के करगिल जिले में हुए सशस्त्र संघर्ष का नाम है। 26 जुलाई 1999 को भारत ने कारगिल युद्ध में विजय हासिल की थी। इस दिन को हर वर्ष” विजय दिवस ” के रूप में मनाया जाता है। करीब 18 हजार फीट की ऊँचाई पर कारगिल में लड़ी गई इस जंग में देश ने लगभग 527 से ज्यादा वीर योद्धाओं को खोया था वहीं 1300 से ज्यादा घायल हुए थे।

युद्ध में 2700 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए। करीब दो महीने तक चला कारगिल युद्ध चला। कारगिल युद्ध की शुरूआत 3 मई 1999 को ही कर दी थी जब उसने कारगिल की ऊँची पहाड़ियों पर 5,000 सैनिकों के साथ घुसपैठ कर कब्जा जमा लिया था। इस बात की जानकारी जब भारत सरकार को मिली तो सेना ने पाक सैनिकों को खदेड़ने के लिए ऑपरेशन विजय चलाया।

प्रथम गोलमेज सम्मेलन – 1930 प्रथम

गोलमेज सम्मेलन 12 दिसम्बर, 1930 से 10 जनवरी, 1931 तक लन्दन में आयोजित किया गया था। यह ऐसी पहली वार्ता थी, जिसमें ब्रिटिश शासकों द्वारा भारतीयों को बराबर का दर्जा दिया गया। प्रथम गोलमेज सम्मेलन जिसमें 89 सदस्यों में 13 ब्रिटिश, शेष 76 भारतीय राजनीतिक दलों से जैसे – भारतीय उदारवादी दल, हिन्दू महासभा, दलितवर्ग, व्यापारी वर्ग तथा रजवाड़ों के प्रतिनिधि थे।

इस सम्मेलन का उद्घाटन ब्रिटेन के सम्राट जार्ज पंचम ने किया तथा अध्यक्षता प्रधानमंत्री रैम्जे मैक्डोनाल्ड ने की। सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले प्रमुख नेता इस प्रकार थे – तेजबहादुर सप्रू, श्री निवासशास्त्री, मुहम्मद अली, मुहम्मद शफी, आगा खान, फजलूल हक, मुहम्मद अली जिन्ना, होमी मोदी, एम.आर.जयकर, मुंजे, भीमराव अंबेडकर, सुंदर सिंह मजीठिया आदि। यह सम्मेलन कांग्रेस के बहिष्कार के फलस्वरूप 19 जनवरी, 1931 को समाप्त हो गया था।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन – 1931 ई०

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 7 सितम्बर, 1931 को शुरू हुआ था ।यह सम्मेलन भी लन्दन में ही था। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन दूसरे गोलमेज सम्मेलन के अधिवेशन के दौरान अक्टूबर, 1931 के चुनावों के बाद इंग्लैण्ड में अनुदार दल का मंत्रिमंडल बना। इस सम्मेलन में डॉ.अम्बेडकर ने दलित वर्गों के लिए कुछ स्थान आरक्षति करने की माँग की, किन्तु गाँधीजी ने इसे अस्वीकार कर दिया और काँग्रेस को 85 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधि बताया। महात्मा गाँधी ने भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता की माँग की।

जिसमें कांग्रेस ने भी भाग लिया था, इस सम्मेलन में सरोजनी नायडू और एनी बेसेंट ने भाग लिया था जिसमें महिलाओं का नेतृत्व एनी बेसेंट ने किया था
और 1 दिसम्बर 1931 को समाप्त हुआ था यह सम्मेलन साम्प्रदायिक समस्या पर विवाद के कारण असफल रहा।

तृतीय गोलमेज सम्मेलन – 1932 ई०

तृतीय गोलमेज सम्मेलन का आरम्भ 17 नवम्बर से 24 दिसम्बर 1932 को हुआ था। इस सम्मेलन में कुल 46 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। सम्मेलन में भारत सरकार अधिनियम 1935 हेतु ठोस योजना के अंतिम स्वरूप को पेश किया गया। इस सम्मेलन के समय भारत के सचिव सेमुअल होर थे। तीनों सम्मेलनों के दौरान इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड था। इस सम्मेलन में कांग्रेस ने भाग नहीं लिया था। तृतीय गोलमेज सम्मेलन इस सम्मेलन मे भारत सरकार अधिनियम 1935 ई. को अंतिम रूप दिया था।

क्रिप्स मिशन का आगमन – 1942 ई०

क्रिप्स मिशन ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल द्वारा ब्रिटिश संसद सदस्य तथा मजदूर नेता सर स्टेफ़र्ड क्रिप्स के नेतृत्व में मार्च 1942 में भारत भेजा गया था, जिसका उद्देश्य भारत के राजनीतिक गतिरोध को दूर करना था। हालांकि इस मिशन का वास्तविक उद्देश्य युद्ध में भारतीयों को सहयोग प्रदान करने हेतु उन्हें फुसलाना था।

चीनी क्रांति – 1911 ई०

चीनी क्रांति – 1911 ई ० विदेशी चीनी- समट द्वारा आयोजित की गई, चीन की 1911 की क्रांति के फलस्वरूप चीन के अन्तिम राजवंश ( चिंग राजवंश ) की समाप्ति हुई और चीनी गणतंत्र बना। चीन के क्रांतिकारियों ने फ्रांसवालों का अनुकरण किया और राजतंत्र का सदा के लिए अंत कर दिया।

यह एक बहुत बड़ी घटना थी। मंचू लोगों का शासन चीन पर पिछले तीन सौ वर्षों से चला आ रहा था जिसका अंत हो गया। बीसवीं शताब्दी में चीन एशिया का प्रथम देश था, जहाँ गणतांत्रिक सरकार की स्थापना हुई। इस प्रकार, अब चीन में दो सरकारें हो गई। एक नानकिंग की गणतांत्रिक सरकार और दूसरी पिकिंग की मंचू सरकार। यह विश्व इतिहास की एक प्रमुख घटनाएं है।

फ्रांसीसी क्रांति – 1789 ई०

फ़्रान्सीसी क्रान्ति फ्रांस 1789 से 1799 तक चली।बाद में, नेपोलियन बोनापार्ट ने फ्रांसीसी साम्राज्य के विस्तार द्वारा कुछ अंश तक इस क्रान्ति को आगे बढ़ाया और एक गणतंत्र की स्थापना की। इस क्रान्ति ने आधुनिक इतिहास की दिशा बदल दी। इससे विश्व भर में पूर्ण राजतन्त्र का ह्रास होना शुरू हुआ, नये गणतन्त्र एवं उदार प्रजातन्त्र बने। यह विश्व इतिहास की एक प्रमुख घटनाएं है।

रुसी क्रांति – 1917 ई०

रूसी क्रांति 20 वीं सदी की क्रान्ति से रूसी क्रांति से राजतन्त्र का पतन हुआ। रूस की क्रान्ति विश्व इतिहास की सबसे प्रमुख घटनाएं है। यह क्रान्ति दो भागों में हुई थी – मार्च 1917 में, तथा अक्टूबर 1917 में। पहली क्रांति के फलस्वरूप सम्राट को पद – त्याग के लिये विवश होना पड़ा तथा एक अस्थायी सरकार बनी। अक्टूबर की क्रान्ति के फलस्वरूप अस्थायी सरकार को हटाकर बोलसेविक सरकार (कम्युनिस्ट सरकार) की स्थापना की गयी।

आर्थिक और सामाजिक सत्ता को समाप्त करते हुए विश्व में मजदूर और किसानों की प्रथम सत्ता स्थापित की। मार्क्स द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा को मूर्त रूप पहली बार रूसी क्रान्ति ने प्रदान किया। इस क्रान्ति ने समाजवादी व्यवस्था को स्थापित कर स्वयं को इस व्यवस्था के जनक के रूप में स्थापित किया। यह विचारधारा 1917 के पश्चात इतनी शक्तिशाली हो गई कि 1950 तक लगभग आधा विश्व इसके अन्तर्गत आ चुका था।

क्रांति के बाद का विश्व इतिहास कुछ इस तरीके से गतिशील हुआ कि या तो वह इसके प्रसार के पक्ष में था अथवा इसके प्रसार के विरूद्ध। रूसी क्रान्ति का जनक लेनिन को कहा जाता है जिन्होंने रूस की क्रान्ति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

तो ये था इतिहास की प्रमुख घटनाएं, जिसके बारे में आपने जाना। उम्मीद है कि आपको इस आर्टिकल से कुछ सहायता मिला होगा।

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