लोकसभा चुनाव कब कैसे और कितने बार हुआ। Loksabha election in India
भारत के लोकसभा चुनाव को दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव माना जाता है। इसमें लाखों की संख्या में कर्मचारी काम करते हैं और करोड़ों मतदाता मतदान करते हैं। अगस्त 1947 से देश का शासन भारतीय संविधान सभा नामक एक अंतरिम विधायिका द्वारा चलाया जा रहा था। चुनावों से पहले सितम्बर 1951 में एक नकली चुनाव आयोजित किया गया था क्योंकि देश के अधिकांश लोग चुनाव प्रक्रिया से अपरिचित थे। यद्यपि चुनाव अक्टूबर 1951 में शुरू हुए, लेकिन देश के अधिकांश हिस्सों में मतदान जनवरी-फरवरी 1952 में हुआ।
संवैधानिक आवश्यकता के अनुसार, लोकसभा के चुनाव हर पाँच साल में या राष्ट्रपति द्वारा संसद भंग किए जाने पर होने चाहिए। चुनाव भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) द्वारा आयोजित किए जाते हैं और आम तौर पर बड़े मतदाताओं और सुरक्षा चिंताओं को बेहतर ढंग से संभालने के लिए कई चरणों में आयोजित किए जाते हैं।
संविधान में उल्लिखित सदन की अधिकतम क्षमता 552 सदस्यों की है जिनमें 530 सदस्य राज्यों का व 20 सदस्य केंद्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और 2 सदस्यों को एंग्लो-भारतीय समुदायों के प्रतिनिधित्व के लिए राष्ट्रपति द्वारा नामांकित किया जाता है। ऐसा तब किया जाता है, जब राष्ट्रपति को लगता है कि उस समुदाय का सदन में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं हो रहा हैं।
भारत में अबतक हुए लोकसभा चुनाव
भारतीय चुनावों में मुख्य रूप से मुकाबला कांग्रेस व भाजपा (पुराना नाम जनसंघ) के बीच ही होता आया है। समय-समय पर कई नई क्षेत्रीय पार्टियां भी बनीं, किंतु इनमें से अधिकतर अपना अस्तित्व बचाने में असफल रहीं। जो बची-खुची रहीं भी, वे केंद्र में सबसे ज्यादा बहुमत प्राप्त दल को समर्थन देने को मजबूर हुईं।
भारत में लोकसभा के चुनाव साल 1951 से कराए जा रहे हैं। साल 1952 में हुए लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक कुल 17 बार लोकसभा चुनाव हो चुके हैं। अंग्रेजों से देश की आजादी के बाद पहली बार लोकसभा के लिए आम चुनाव 1951-52 में हुए थे। इसी कड़ी में आइए आज जानते हैं कि भारत में आजादी से लेकर अब तक हुए लोकसभा के चुनावों के बारे में।
पहला लोकसभा चुनाव 1951- 52
लोकसभा की बेवसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक पहली लोकसभा 17 अप्रैल,1952 को अस्तित्व में आई थी। इसकी पहली बैठक 13 मई, 1952 को आयोजित की गई थी। गणेश वासुदेव मावलंकर पहली लोकसभा के अध्यक्ष थे। वो 15 मई,1952 से 27 फरवरी,1956 तक इस पद पर रहे। पहली लोकसभा के उपाध्यक्ष एम अनंतशयनम अय्यंगर थे। उनका कार्यकाल 30 मई,1952 से सात मार्च, 1956 तक था।
आजाद भारत में पहली लोकसभा के चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 के बीच कराए गए थे। उस समय लोकसभा में कुल 489 सीटें थीं लेकिन संसदीय क्षेत्रों की संख्या 401 थी। लोकसभा की 314 संसदीय सीटें ऐसी थीं जहां से सिर्फ़ एक-एक प्रतिनिधि चुने जाने थे। वहीं 86 संसदीय सीटें ऐसी थी जिनमें दो-दो लोगों को सांसद चुना जाना था. वहीं नॉर्थ बंगाल संसदीय क्षेत्र से तीन सांसद चुने गए थे। किसी संसदीय क्षेत्र में एक से अधिक सदस्य चुनने की यह व्यवस्था 1957 तक जारी रही। इस चुनाव का पहला वोट हिमाचल प्रदेश के चिनी में डाला गया।
पहली बार लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनकर उभरी थी। पहली लोकसभा चुनाव में कुल लोकसभा सीटें 489 थीं और कुल पात्र मतदाता 17.3 करोड़ थे। इसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 364 सीटें जीतीं। उनके बाद निर्दलीय उम्मीदवारों ने कुल 37 सीटें जीतीं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 16 और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) ने 12 सीटें जीतीं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को इस चुनाव में कुल वोटों का 45% मिला और उसने 479 सीटों में से 76% सीटें जीतीं।
दूसरा लोकसभा चुनाव 1957
1952 के चुनाव के मुकाबले इस चुनाव की पूरी प्रक्रिया काफी कम दिनों तक चली थी। 19 जनवरी से शुरू होकर एक मार्च 1957 तक चलने वाले इस चुनावी के भी केंद्रीय व्यक्ति जवाहरलाल नेहरू ही थे। इस चुनाव में पहले चरण के मतदान के माध्यम से 494 सीटें चुनी गईं। 403 निर्वाचन क्षेत्रों में से 91 ने दो सदस्य चुने, जबकि शेष 312 ने एक सदस्य चुना। अगले चुनाव से पहले बहु-सीट वाले निर्वाचन क्षेत्रों को समाप्त कर दिया गया।
1956 में भाषायी आधार पर हुए राज्यों के पुनर्गठन के बाद लोकसभा का यह आम चुनाव पहला चुनाव था। तमाम आशंकाओं के विपरीत 1952 के मुकाबले इस चुनाव में कांग्रेस की सीटें और वोट दोनों बढ़े। इसके कारण भारतीय राजनीति में भाषायी विभाजन को लेकर लगाई जाने वाली अटकलें भी समाप्त हो गईं और जाति-संप्रदाय की तरह भाषा के आधार पर बड़े राजनीतिक विभाजन का खतरा समाप्त हो गया। इसी चुनाव में पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव लड़े थे। तीन सीटों में एक पर उन्हें जीत मिली, जबकि एक पर तो उनकी जमानत ही जब्त हो गई।
जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 494 सीटों में से 371 सीटें जीतकर आसानी से सत्ता में दूसरा कार्यकाल जीता। उन्हें अतिरिक्त सात सीटें मिलीं (लोकसभा का आकार पांच से बढ़ा दिया गया था) और उनका वोट शेयर 45% से बढ़कर 48% हो गया। कांग्रेस को दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी से लगभग पांच गुना ज़्यादा वोट मिले। इसके अलावा, 19% वोट और 42 सीटें स्वतंत्र उम्मीदवारों को मिलीं, जो किसी भी भारतीय आम चुनाव में सबसे ज़्यादा थीं।
चुनावों की देखरेख मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने की, जिन्होंने लागत कम करने और दक्षता में सुधार करने के लिए मौजूदा चुनाव ढांचे का इस्तेमाल किया। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने लिखा है कि इस आम चुनाव में पिछले चुनाव की तुलना में राजकोष पर 45 मिलियन रुपये कम खर्च हुए। विवेकशील सेन ने पहली बार 3.5 मिलियन मतपेटियों को सुरक्षित रूप से संग्रहीत किया था और केवल पाँच लाख अतिरिक्त मतपेटियों की आवश्यकता थी।
तीसरा लोकसभा चुनाव 1962
1962 में लोकसभा का तीसरा आम चुनाव। 494 सीटों के लिए हुए इस चुनाव को बतौर मतदाता 21 करोड़ 64 लाख लोगों ने देखा। 11 करोड़ 99 लाख मतदाताओं यानी 55.42 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। इस चुनाव पर सरकारी खजाने से कुल सात करोड़ 80 लाख रुपए खर्च हुए थे। कुल 1985 प्रत्याशी चुनाव लड़े थे जिनमें से 856 की जमानत जब्त हो गई थी। कुल 66 महिलाएं चुनाव लड़ी थीं, जिनमें से 31 जीती थीं और 19 को जमानत गंवानी पड़ी थी।
1957 के आम चुनावों तक 91 ऐसी सीटें थीं जिनमें एक ही सीट पर दो लोगों को चुना जाता था. इस परंपरा को 1962 के आम चुनावों में खत्म कर दिया गया। इस चुनाव के पहले तक लोकसभा चुनावो में बतौर नेता अधिकांशतः अंग्रेजीदां उच्च मध्यवर्गीय तबके का कब्जा रहा। 1962 मे पहली बार यह कब्जा टूटना शुरू हुआ। संसद मे किसान और ग्रामीण पृष्ठभूमि के प्रतिनिधियों के प्रवेश का रास्ता खुला।
जवाहरलाल नेहरू ने अपने तीसरे और अंतिम चुनाव अभियान में एक और शानदार जीत हासिल की। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को 44.7% वोट मिले और उसने 494 निर्वाचित सीटों में से 361 सीटें जीतीं। यह पिछले दो चुनावों की तुलना में थोड़ा ही कम था और फिर भी उन्होंने लोकसभा में 70% से अधिक सीटें जीतीं।
दूसरे आम चुनाव की तरह इस बार भी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) रही। उसने 137 सीटों पर चुनाव लड़कर 29 पर जीत दर्ज की। उसे 9.94 प्रतिशत वोट मिले जबकि उसके 26 प्रत्याशियो को अपनी जमानत गंवानी पड़ी थी। तीसरे नंबर पर स्वतंत्र पार्टी रही। 7.89 फीसदी वोटों के साथ उसे 18 सीटों पर जीत मिली। स्वतंत्र पार्टी ने कुल 173 प्रत्याशियों को चुनाव मैदान मे उतारा था जिनमें 75 की जमानत जब्त हो गई थी।
जनसंघ की सीटों में 1957 के मुकाबले तीन गुना से भी ज्यादा का इजाफा हुआ। उसके 196 उम्मीदवारों मे से 14 जीते पर 114 की जमानत भी जब्त हो गई। उसका वोट प्रतिशत तीन से बढ़कर 6.44 फीसदी हो गया। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के खाते में 12 और सोशलिस्ट पार्टी के खाते में छह सीटें गई थीं। पीएसपी को 6.81 फीसदी और सोशलिस्ट पार्टी को 2.69 फीसदी वोट मिले थे।
इस तीसरी लोकसभा का गठन जून में हुआ और तीन महीने बाद ही अक्टूबर 1962 मे भारत-चीन युद्ध हो गया। इस युद्ध से नेहरू को करारा झटका लगा और मृत्यु तक वे इससे उबर नहीं सके। तीसरी लोकसभा का कार्यकाल युद्ध, खाद्यान्न की कमी, सामाजिक तनाव और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर के रूप में याद किया जाता है। 1962 के भारत-चीन युद्ध से ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का राग छिन्न-भिन्न हो चुका था। इसके अलावा 1965 की भारत-पाक जंग भी हो चुकी थी। भारत-चीन युद्ध के सदमे से बीमार हुए नेहरू का 1964 में देहांत हो गया तो 1966 में ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री मौत हो चुकी थी। हिंदुस्तान 1962 से 1966 के बीच ही 4-4 प्रधानमंत्रियों का गवाह बन चुका था- पंडित जवाहर लाल नेहरू, गुलजारी लाल नंदा (दो बार), लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी।
चौथा लोकसभा चुनाव 1967
चौथी लोकसभा के 523 सदस्यों में से 520 सदस्यों का चुनाव करने के लिए भारत में 17 से 21 फरवरी 1967 के बीच आम चुनाव हुए, जो लोकसभा के पिछले सत्र से 15 सीटों की वृद्धि थी। इस चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सरकार ने सत्ता बरकरार रखी, हालांकि बहुमत काफी कम हो गया। जिसमें कांग्रेस आगे तो रही पर उसकी सीटें तीन सौ के नीचे आ गईं और उसे 283 सीटों पर जीत मिली थी। धीरे-धीरे आगे बढ़ रही जनसंघ को 35 सीटों पर जीत हासिल हुई। वहीं, वामपंथी दलों में सीपीआई को 23 और सीपीएम को 19 सीटों पर विजय मिली थी। प्रजा समाजवादी के प्रत्याशी 13 सीटों पर जीते थे।
1967 के चुनाव में पहली बार जवाहर लाल नेहरू की अनुपस्थिति में चुनाव हुआ। 1967 के चुनावों में कांग्रेस लगातार चौथी बार सरकार बनाने में सफल तो रही लेकिन राज्यों पर उसकी पकड़ ढीली होती जा रही थी। हालांकि, इसके साथ ही देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के युग की शुरुआत भी हुई और इंदिरा गांधी ने 13 मार्च को प्रधानमंत्री के रूप में दोबारा शपथ ली।
1963 में परिसीमन के बाद 1967 में लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या बढ़कर 520 हो गई थी। कुल 25 करोड़ वोटरों में से 61.3 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। कांग्रेस करीब 41 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 283 सीटों पर जीत दर्ज की। खास बात यह थी कि सीपीआई को पछाड़कर सी. राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर उभरी। उसने 8.67 वोट प्रतिशत के साथ 44 सीटों पर जीत हासिल की। तीसरे नंबर पर भारतीय जन संघ (मौजूदा बीजेपी का पूर्ववर्ती रूप) रहा, जिसके खाते में 35 सीटें आईं। सीपीआई 23 सीटों पर सिमट गई, जबकि उसके विघटन के बाद बनी सीपीएम ने 19 सीटों पर जीत हासिल की। डीएमके ने भी 25 सीटों पर परचम लहराकर शानदार प्रदर्शन किया।
पांचवा लोकसभा चुनाव 1971
जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस भी उनकी मौत के चंद सालों बाद यानी 1969 में आते-आते खत्म हो गई और उसकी जगह ले ली इंदिरा गांधी की कांग्रेस ने। 1971 के आम चुनाव से कोई डेढ़ साल पहले एक ऐसी घटना हुई जिससे कांग्रेस के विभाजन पर आधिकारिक मुहर लग गई। यह घटना थी अगस्त 1969 में हुआ राष्ट्रपति चुनाव।
इस घटना के बाद औपचारिक तौर पर कांग्रेस दोफाड़ हो गई। बुजर्ग कांग्रेसी दिग्गजों ने कांग्रेस (संगठन) नाम से अलग पार्टी बना ली। इंदिरा गांधी के लिए यह बेहद मुश्किलों भरा दौर था। उनकी सरकार अल्पमत में आ गई थी। अपने समक्ष मौजूदा राजनीतिक चुनौतियां का सामना करने के लिए इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने और पूर्व राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स के खात्मे जैसे कदम उठाकर अपनी साहसिक और प्रगतिशील नेता की छवि बनाने की कोशिश की।
दिसंबर, 1970 में उन्होंने लोकसभा को भंग करने का एलान कर दिया। इस प्रकार जो पांचवीं लोकसभा के लिए चुनाव 1972 में होना था, वह एक साल पहले यानी 1971 में ही हो गया। इस चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपनी गरीब नवाज की छवि बनाने के लिए गरीबी हटाओ का नारा दिया।
1971 के लोकसभा चुनाव को बतौर मतदाता 27 करोड़ 42 लाख लोगों ने देखा। इनमें 14.36 करोड़ पुस्र्ष और और 13.06 करोड़ महिलाएं थीं। मतदान का प्रतिशत 55.27 रहा यानी करीब 15 करोड़ लोगों ने मताधिकार का उपयोग किया। 518 सीटों के लिए हुए पांचवें चुनाव में कांग्रेस ने फिर बड़ा हाथ मारा और उसे 352 सीटें मिलीं। सीपीएम को 25, सीपीआई को 24, डीएमके को 23 और जन संघ को 21 सीटों पर जीत मिली थी।
इस चुनाव की खास बात यह रही कि आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में दो क्षेत्रीय शक्तियों ने असरदार उपस्थिति दर्ज की। आंध्र में तेलंगाना प्रजा समिति को 10 सीटों पर जीत मिली जबकि तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) के खाते में 23 सीटें आईं। इस चुनाव में 14 निर्दलीय भी जीते। चुनाव में कुल 2784 उम्मीदवारों ने अपना भाग्य आजमाया था जिनमें से 1707 की जमानत जब्त हो गई थी। पांचवीं लोकसभा के चुनाव में जो दिग्गज लोकसभा पहुंचे उनमें से दो नेता ऐसे थे जो बाद में देश के राष्ट्रपति बने, जबकि उनमें चार नेताओं ने देश के प्रधानमंत्री का पद संभाला।
छठवां लोकसभा चुनाव 1977
1977 के चुनाव से पहले देश के लोगों ने जो कुछ देखा। उसके बाद बस यही लगा कि कहीं ये देश में लोकतंत्र का अंत तो नहीं। 18 महीने की इमरजेंसी के बाद सरकार ने आम चुनाव मार्च 1977 में कराने का फैसला किया। जेल में बंद सभी बड़े, छोटे नेताओं और प्रदर्शनकारियों को रिहा कर दिया गया। सभी विपक्षी पार्टियां कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हो गईं और जनता पार्टी के नाम से एक नई पार्टी का गठन किया गया। जनता पार्टी के नए लीडर बनाए गए जयप्रकाश नारायण। कुछ कांग्रेसी नेता जो इमरजेंसी के विरोधी थे, वो भी जनता पार्टी से जुड़ गए।
भारत में छठी लोकसभा के सदस्यों का चुनाव करने के लिए 16 से 20 मार्च 1977 के बीच आम चुनाव हुए थे। चुनाव आपातकाल के दौरान हुए थे, जो अंतिम परिणाम घोषित होने से कुछ समय पहले 21 मार्च 1977 को समाप्त हो गया था। इस चुनाव में जनता पार्टी और सीएफडी को भारी जीत मिली, और लोकसभा में 298 सीटें हासिल कीं, जबकि सत्तारूढ़ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस केवल 154 सीटें जीतने में सफल रही – जो कि कम थी।
1975 में इंदिरा गांधी ने पूरे देश को इमरजेंसी की आग में झोंक दिया। जिससे जनता में कांग्रेस के प्रति अविश्वास चरम पर पहुंच गया। आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस को 1977 के चुनावों में करारी शिकस्त मिली थी। कांग्रेस को सिर्फ 154 सीटें मिलीं। कांग्रेस का वोट शेयर घटकर 35 प्रतिशत के नीचे चला गया। जनता पार्टी और गठबंधन को 542 में से 330 सीटें मिलीं। 295 सीटें अकेले जनता पार्टी के खाते से थीं।
इस चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आर) को भारी हार का सामना करना पड़ा, जिसमें मौजूदा प्रधानमंत्री और कांग्रेस (आर) पार्टी की नेता इंदिरा गांधी रायबरेली में अपनी सीट हार गईं, जबकि उनके बेटे संजय अमेठी में अपनी सीट हार गए। आपातकाल को हटाकर लोकतंत्र की बहाली का आह्वान विपक्षी जनता गठबंधन की व्यापक जीत का एक प्रमुख कारण माना जाता है, जिसके नेता मोरारजी देसाई ने 24 मार्च को भारत के चौथे प्रधान मंत्री के रूप में शपथ ली। 81 वर्ष की आयु में, देसाई भारत के प्रधान मंत्री चुने जाने वाले सबसे बुजुर्ग व्यक्ति बन गए।
सातवां लोकसभा चुनाव 1980
आपातकाल के बाद देश में साल 1977 में आम चुनाव हुए थे। जिसमें कांग्रेस को बुरी तरह से हार मिली थी और देश में मोरारजी देसाई की अगुवाई में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। लेकिन जल्द ही मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी और चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने। हालांकि वो बहुमत नहीं जुटा पाए और देश में 7वें आम चुनाव का ऐलान हुआ।
सातवें आम चुनाव के लिए साल 1980 में 3 और 6 जनवरी की तारीख तय की गई। जनता पार्टी में नेताओं की आपसी लड़ाई और देश में राजनीतिक अस्थिरता ने कांग्रेस (आई) के पक्ष में माहौल बनाया। कांग्रेस ने भी स्थिर और मजबूत सरकार देने का दांव चला। कांग्रेस ने ‘काम करने वाली सरकार को चुनिए’ नारा दिया और जब चुनाव नतीजे आए तो जनता ने कांग्रेस के इस नारे पर मुहर लगा दी थी।
1977 में पहले जनता पार्टी और फिर चरण सिंह की सरकार गिरने के बाद 1980 में हुए सातवें आम चुनाव ने दिखाया कि इंदिरा गांधी ने किस तरह आपातकाल की वजह से खोया जनसमर्थन वापस पाया। सातवीं लोकसभा के लिए 1980 में हुए चुनाव में एक बार फिर इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई। कांग्रेस ने लोकसभा में 353 सीटें जीतीं और जनता पार्टी या बचे हुए गठबंधन को मात्र 31 सीटें मिलीं, जबकि जनता पार्टी सेक्यूलर को 41 सीटें मिली थीं। माकपा 37 सीटें जीतने में सफल रही।
सिर्फ तीन साल के अंदर इमरजेंसी से खफा जनता ने कांग्रेस को दोबारा सत्ता की चाभी थमा दी। इंदिरा गांधी की जीत ने कांग्रेस की दो मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टियों का सूपड़ा साफ कर दिया। राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता के लिए 54 सीटें भी जनता दल और लोक दल को नसीब नहीं हुईं। इसी दौरान आठवीं लोकसभा से पहले भाजपा का गठन हुआ और इसके पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी बने।
आठवां लोकसभा चुनाव 1984
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भयानक सिख विरोधी हिंसा हुई। देशभर में सिख समुदाय के 3000 से अधिक लोग मारे गए, जिनमें अकेले दिल्ली से 2500 से अधिक लोग थे। इसमें कुछ कांग्रेस नेताओं को भी दोषी ठहराया गया। जिसके बाद चुनाव आयोग को लोकसभा चुनाव को कुछ सप्ताह आगे बढ़ाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
17 राज्यों और सभी नौ केंद्र शासित प्रदेशों में एक ही दिन चुनाव हुए। पंजाब और असम में कोई मतदान नहीं हो सकता था। इसे सुविधाजनक बनाने के लिए, धारा 73 A को लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में जोड़ा गया था, जिसने ईसीआई को असम और पंजाब राज्य में चुनाव के संबंध में कदम उठाने की अनुमति दी थी।
उन राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में वोटों की गिनती 28 दिसंबर 1984 को शुरू हुई, जहां 24 और 27 दिसंबर को मतदान हुआ था। वहीं नागालैंड और मेघालय में 29 दिसंबर को काउंटिंग हुई जहां 28 दिसंबर को मतदान हुआ था। 31 दिसंबर 1984 तक लगभग सभी निर्वाचन क्षेत्रों के परिणाम घोषित कर दिए गए थे।
31 अक्टूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी को अचानक प्रधानमंत्री पद का दावेदार बना दिया गया। इंदिरा की हत्या के बाद देशभर में उठी सहानुभूति की सुनामी पर सवार होकर, राजीव गांधी के समय में कांग्रेस ने दिसंबर, 1984 को हुए आठवें लोकसभा चुनाव के पहले चरण में 514 सीटों में से 404 सीटें जीतीं। वहीं, सितंबर और दिसंबर 1985 में पंजाब और असम में वोटिंग के बाद अन्य 10 सीटें जीतीं।
इस चुनाव में एनटीआर की तेलुगु देशम पार्टी ने लोकसभा में 30 सीटें जीतीं। सीपीआई (एम) ने 22 सीटें, जनता ने 10, सीपीआई ने 6 और लोक दल (सी) ने 3 सीटें जीतीं। भाजपा ने सिर्फ दो सीटें जीतीं – आंध्र प्रदेश के हनमकोंडा से चंदुपटला जंगा रेड्डी और गुजरात के मेहसाणा से एके पटेल। वाजपेयी ग्वालियर में हार गये और जनता पार्टी के चन्द्रशेखर अपने गृह क्षेत्र यूपी के बलिया में हार गये। बागपत में चरण सिंह जीते. जगजीवन राम, जो कांग्रेस छोड़कर कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी में शामिल हुए थे और बाद में नई पार्टी कांग्रेस (जे) बनाई, ने सासाराम में जीत हासिल की। बारामती में कांग्रेस (सोशलिस्ट) के शरद पवार जीते थे।
राजीव ने अपनी भाभी और संजय की पत्नी मेनका गांधी को हराकर अमेठी में जीत हासिल की। अभिनेता अमिताभ बच्चन ने इलाहाबाद में पूर्व कांग्रेसी और दिग्गज नेता एच एन बहुगुणा को हराया। के आर नारायणन ने केरल के ओट्टापलम में, प्रकाश चंद सेठी ने इंदौर में, गुलाम नबी आज़ाद ने महाराष्ट्र के वाशिम में और पी वी नरसिम्हा राव ने बेरहामपुर में जीत हासिल की। इंदिरा के आपातकाल के दौरान राष्ट्रपति रहे फखरुद्दीन अली अहमद की पत्नी आबिदा अहमद ने बरेली में जीत हासिल की।
हालांकि, यह लहर ज्यादा दिन तक कायम नहीं रही और भारत के सबसे युवा प्रधानमंत्री राजीव केवल 40 वर्ष के थे जब उन्होंने पदभार संभाला और 1989 में एक बड़े भ्रष्टाचार घोटाले के बीच सत्ता खो दी। जिसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस 1984 के बाद कभी भी अपने दम पर लोकसभा में बहुमत हासिल नहीं कर सकी।
नौवां लोकसभा चुनाव 1989
राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व में मौजूदा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (इंदिरा) सरकार ने अपना जनादेश खो दिया, फिर नौवीं लोकसभा के सदस्यों का चुनाव करने के लिए भारत में 22 और 26 नवंबर 1989 को आम चुनाव हुए। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस को चुनाव में जो सफलता मिली थी, 1989 में वह हाथ से फिसल गई।
असम में बढ़ती अशांति और बोडो लोगों के विद्रोह के कारण मतदान नहीं हुआ, जिसकी परिणति गोहपुर में 535 लोगों के नरसंहार के रूप में हुई। इसके अलावा, गोवा, दमन और दीव के केंद्र शासित प्रदेश को गोवा और दमन और दीव में विभाजित कर दिया गया, जिसमें गोवा की 2 सीटें बरकरार रहीं और दमन और दीव को 1 सीट का फायदा हुआ। इस प्रकार कुल लोकसभा सीटें 1 बढ़कर कुल 543 हो गईं। चूंकि असम में कभी चुनाव नहीं हुआ, इसलिए इस चुनाव में लड़ी गई कुल सीटें घटकर 529 हो गईं।
इस आम चुनाव में कांग्रेस को हार मिली। उसे महज 197 सीटों पर जीत हासिल हुई। जनता दल 143 सीटों के साथ दूसरे नंबर रही। इसके बाद बीजेपी को 85 सीटें मिलीं और सीपीएम को 33 सीटें हासिल हुईं। वोट प्रतिशत की बात करें तो यह सबसे ज्यादा कांग्रेस (39.53) का था। वोट प्रतिशत के मामले में जनता दल दूसरे नंबर पर रहा लेकिन यह कांग्रेस के मुकाबले आधे से भी कम था। इस चुनाव में AIADMK को 11 और CPI को 12 सीटों पर विजय मिली।
नौवीं लोकसभा में लोगों ने जमकर मतदान किया लेकिन किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। बोफोर्स घोटाला, पंजाब में बढ़ता आतंकवाद, LTTE और श्री लंका सरकार के बीच बढ़ते तनाव के बीच राजीव गांधी की छवि को झटका लगा। राजीव सरकार की कैबिनेट में रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ही उनके सबसे बड़े आलोचक बन गए। अब तक बीजेपी की स्थिति भी मजबूत हो गई थी।
भले ही कांग्रेस अभी भी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी थी। लेकिन दूसरी सबसे बड़ी पार्टी जनता दल (जो राष्ट्रीय मोर्चा का भी नेतृत्व करती थी ) के नेता वीपी सिंह को भारत के राष्ट्रपति ने सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था। सरकार का गठन भारतीय जनता पार्टी और सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टियों के बाहरी समर्थन से किया गया था और वीपी सिंह ने 2 दिसंबर 1989 को भारत के सातवें प्रधान मंत्री के रूप में शपथ ली।
दसवां लोकसभा चुनाव 1991
9वीं लोकसभा केवल 16 महीने में भंग हो गई और फिर से देश को 1991 में चुनाव का मुंह देखना पड़ा। 10वीं लोकसभा के लिए 1991 के अप्रैल-मई महीने में चुनाव कराए जाने का फैसला हुआ। सुरक्षा कारणों से पंजाब में चुनाव 1992 में कराए गए जबकि जम्मू-कश्मीर में 10वीं लोकसभा के चुनाव कराए ही नहीं गए।
चुनाव मैदान में थीं कांग्रेस, बीजेपी, नेशनल फ्रंट गठबंधन और दो कम्युनिस्ट पार्टियां। इन चुनावों में पहली बार कांग्रेस की नीति समाजवाद से हटकर उदारीकरण की तरफ परिवर्तित हुई। लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में अल्ट्रा नेशनलिस्ट बीजेपी हिंदू राजनीतिक और धार्मिक परंपरा से प्रेरित थी। जबकि नेशनल फ्रंट अब भी वी पी सिंह के पिछड़े वर्ग के विकास यानि मंडल की लाठी के सहारे था। कुल मिलाकर 9 हजार उम्मीदवारों ने 4 हफ्तों तक चुनाव प्रचार किया। ये चुनाव कई हिंसक घटनाओं का भी गवाह बना। मई में पहले चरण में 211 सीटों के लिए मतदान हुआ।
20 मई को पहले चरण के मतदान हुए ही थे कि तमिलनाडु में एक रैली के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी गई। इसके बाद बाकी बचे दो चरणों के मतदान 12 और 15 जून के लिए पोस्टपोन कर दिए गए। इस बार अब तक के सभी लोकसभा चुनावों में सबसे कम वोटिंग हुई। राजीव गांधी की हत्या के पहले हुए मतदान में कांग्रेस की हालत खराब थी, लेकिन बाद के चरणों में इसे जबरदस्त कामयाबी मिली।
इस आम चुनाव में कांग्रेस को 244 सीटें मिलीं। 120 सीटों के साथ भारतीय जनता पार्टी दूसरे नंबर पर रही। उसे मंदिर मुद्दे का फायदा मिला था। जनता दल को 63 सीटें और CPM को 36 सीटें हासिल हुईं। कांग्रेस का वोट प्रतिशत 35.66 था और बीजेपी को 20.04 प्रतिशत वोट मिले। चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला और फिर एक बार वाम दलों के सहयोग से कांग्रेस ने पीवी नरहिम्हा राव के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनाई।
ग्यारहवां लोकसभा चुनाव 1996
1996 का चुनाव भारत के लिए ऐतिहासिक था। 11वीं लोकसभा का चुनाव 27 अप्रैल से 7 मई 1996 के बीच हुआ था। 59.25 करोड़ पात्र मतदाताओं में से 57.94% या 34.33 करोड़ ने 7.67 लाख से अधिक मतदान केंद्रों पर मतदान किया। 543 सीटों के लिए कुल 13,952 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे।
साल 1996 में हुए ग्यारहवें लोकसभा चुनाव के दौरान पहली बार भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और उसे 161 सीटें मिलीं। कांग्रेस को 140, जनता दल को 46, सीपीएम को 32, समाजवादी पार्टी को 17, टीडीपी को 16, सीपीआई को 12 और बसपा को 11 सीटें मिली थीं।
इस चुनाव में भी किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। 1996 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर सत्ता से बाहर हो गई तथा भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र में पहली बार सरकार बनाई लेकिन इसके साथ ही केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता का दौर तेज हो गया था। 11वें लोकसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी लेकिन वह 13 दिन ही चल सकी।
राजनीतिक अस्थिरता का आलम यह था कि मई 1996 से मार्च 1998 तक देश में 3 प्रधानमंत्री बने। इसके बावजूद लोकसभा अपना 5 वर्ष का कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी और देश में फिर से आम चुनाव कराना पड़ा।
बारहवां लोकसभा चुनाव 1998
डीएमके पार्टी को लेकर कांग्रेस और इंद्र कुमार गुजराल में मचे घमासान की वजह से 1996 के दो साल बाद 1998 में ही फिर लोकसभा चुनाव की नौबत आ गई। देश में 12वें लोकसभा चुनाव 16 फरवरी से 28 फरवरी 1998 के बीच तीन चरणों में चुनाव संपन्न हुए और किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। इस चुनाव में कांग्रेस ने 477 प्रत्याशी मैदान में उतारे थे जिनमें से 141 जीते। भाजपा ने 388 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे थे लेकिन जीत 182 की ही हुई। इस चुनाव में माकपा ने 71 प्रत्याशी उतारे थे। हालांकि, इस चुनाव में भाजपा को 1996 के लोकसभा चुनाव से ज्यादा सीटें मिली।
बारहवीं लोकसभा चुनाव में 61.97 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। चुनाव में भाजपा को यूपी में 57 सीटें मिली। बसपा के खाते में 4 सीटें आई। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 182 सीटें मिली। जबकि कांग्रेस के खाते में 141 सीटें आईं। सीपीएम ने 32 सीटें जीती और सीपाआई के खाते में सिर्फ 9 सीटें आई। समता पार्टी को 12, जनता दल को 6 और बसपा को 5 लोकसभा सीटें मिली। क्षेत्रीय पार्टियों ने 150 लोकसभा सीटें जीतीं।
भारतीय जनता पार्टी ने शिवसेना, अकाली दल, समता पार्टी, एआईएडीएमके और बिजू जनता दल के सहयोग से सरकार बनाई और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और दूसरी तरफ सोनिया गांधी भी राजनीति में कदम रख चुकी थीं। लेकिन इस बार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 13 महीने में ही गिर गई। एआईएडीएमके ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और देश फिर से एक बार मध्यावधि चुनाव के मुहाने पर आ खड़ा हुआ।
तेरहवां लोकसभा चुनाव 1999
अटल सरकार की सहयोगी जयललिता की AIADMK लगातार तमिलनाडु सरकार को बर्खास्त करने के मांग पर समर्थन वापस लेने की धमकी दे रही थी। बीजेपी ने भी जयललिता पर आरोप लगाया कि वो ऐसा इसलिए कर रही हैं ताकि वो अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से बच सकें। दोनों पार्टियों के बीच कोई सहमति नहीं बन सकी। नतीजा ये हुआ कि जयललिता ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। 15 अप्रैल,1999 को संसद में अटल सरकार सिर्फ एक वोट से विश्वास मत हार गई।
लेफ्ट और थर्ड फ्रंट ने कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए उकसाया, लेकिन विपक्ष की नेता सोनिया गांधी और संसद में उनकी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस गठबंधन सरकार बनाने के लिए पर्याप्त नंबर नहीं जुटा सकी। इसके बाद राष्ट्रपति के आर नारायणन ने लोकसभा भंग कर दी और ताजा चुनाव का ऐलान कर दिया। एक बार फिर देश को मध्यवधि चुनाव के लिए तैयार होना पड़ा। करगिल की लड़ाई से कुछ ही महीनों बाद 5 सितंबर, 1999 से 3 अक्टूबर 1999 के बीच लोकसभा चुनाव की तारीखें तय हुईं, और भारत में तेरहवीं लोकसभा चुनाव हुआ।
इस चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने लोकसभा में बहुमत हासिल किया, 1984 के बाद पहली बार किसी पार्टी या गठबंधन ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया और 1977 के चुनावों के बाद दूसरी बार गैर-कांग्रेसी गठबंधन ने ऐसा किया। यह लगातार तीसरा चुनाव भी था जिसमें कुल मिलाकर सबसे अधिक वोट जीतने वाली पार्टी ने सबसे अधिक सीटें नहीं जीतीं।
इस लोकसभा चुनाव ने अटल बिहारी वाजपेयी को पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री होने का रिकॉर्ड दिलाया। निर्णायक परिणाम ने देश में 1996 के चुनावों के बाद से देखी गई राजनीतिक अस्थिरता को भी समाप्त कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप त्रिशंकु संसद बनी थी। हालांकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपना वोट शेयर बढ़ाने में सक्षम थी।
मुख्य विपक्षी लीग का नेतृत्व सोनिया गांधी की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने किया, जो भारत में लंबे समय से पारंपरिक मध्यमार्गी प्रमुख पार्टी रही है। विपक्षी गठबंधन में बहुत कम पार्टियाँ शामिल थीं, और इसके गठबंधन आम तौर पर एनडीए के गठबंधनों से कमज़ोर थे। वामपंथी, समाजवादी और साम्यवादी दलों का एक तथाकथित “तीसरा मोर्चा” भी मौजूद था, हालाँकि यह एक मज़बूत चुनावी गठबंधन नहीं था, बल्कि पार्टियों का एक ढीला-ढाला समूह था जो समान वैचारिक दृष्टिकोण साझा करते थे और कुछ अंतर-पार्टी सहयोग करते थे। असंबद्ध दलों, स्वतंत्र उम्मीदवारों और उन दलों के लगभग एक हज़ार उम्मीदवार भी थे जो चुनाव में खड़े गठबंधन में भाग लेने के लिए तैयार नहीं थे।
मतदान पाँच दिनों तक चला। 5 सितंबर को देश के पूर्वी तट पर 146 सीटों पर, 11 सितंबर को 123 मध्य और दक्षिणी सीटों पर, 18 सितंबर को 76 उत्तरी और ऊपरी-मध्य सीटों पर, 25 सितंबर को 74 उत्तर पश्चिमी सीटों पर और 3 अक्टूबर को 121 पश्चिमी सीटों पर चुनाव हुए। मतदाता थकान की कुछ आशंकाओं के बावजूद, चुनावी मतदान पिछले चुनावों के बराबर 59.99% रहा। 5 मिलियन से अधिक चुनाव अधिकारियों ने 800,000 से अधिक मतदान केंद्रों पर चुनाव कराए, जिसकी मतगणना 6 अक्टूबर को शुरू हुई।
नतीजे निर्णायक रूप से भाजपा और एनडीए के पक्ष में थे, औपचारिक एनडीए ने 269 सीटें जीतीं, और तेलुगु देशम पार्टी ने 29 सीटें लीं, जिसने भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन दिया, लेकिन वह इसके गठबंधन का हिस्सा नहीं थी। कांग्रेस पार्टी ने 23 सीटें खो दीं, और इसके दो प्रमुख क्षेत्रीय सहयोगियों ने उम्मीद से भी खराब प्रदर्शन किया। हालाँकि, इसने उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में फिर से अपनी ज़मीन हासिल की (जहाँ 1998 में इसका सफ़ाया हो गया था, राज्य में एक भी सीट नहीं जीत पाई थी)। वामपंथी दलों की किस्मत में गिरावट जारी रही, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सिर्फ़ चार सीटों पर सिमट गई और “राष्ट्रीय पार्टी” के रूप में अपना आधिकारिक दर्जा खो दिया।
चौदहवां लोकसभा चुनाव 2004
केंद्र में पहली बार पांच वर्ष तक सरकार चलाने में सफल रही भारतीय जनता पार्टी को 2004 के चुनाव में जबर्दस्त झटका लगा जब जनता ने उसके ‘शाइनिंग इंडिया और फील गुड’ के प्रचार को धूल धूसरित कर दिया और कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में आने में सफल रही।
भारत में 20 अप्रैल से 10 मई 2004 के बीच चार चरणों में आम चुनाव हुए थे। 670 मिलियन से ज़्यादा लोग वोट देने के पात्र थे, जिन्होंने 14वीं लोकसभा के 543 सदस्यों का चुनाव किया। सात राज्यों में राज्य सरकारों के चुनाव के लिए विधानसभा चुनाव भी हुए। ये पहले चुनाव थे जो पूरी तरह से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों से हुए थे।
इस चुनाव में कुल 5435 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था जिनमें 2385 निर्दलीय प्रत्याशी थे। कांग्रेस ने 417 उम्मीदवार खड़े किए थे जिनमें 145 निर्वाचित हुए थे। उसे 26.53 प्रतिशत वोट मिले। वहीं भाजपा ने 364 उम्मीदवार खड़े किए थे जिनमें से 138 चुने गए। भाजपा को 22.16 प्रतिशत वोट मिले थे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 34 में से दस तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के 69 में से 43 उम्मीदवार जीते थे। बहुजन समाज पार्टी ने सबसे अधिक 435 उम्मीदवार खड़े किए थे जिनमें से 19 ही निर्वाचित हुए जबकि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के 32 में से नौ प्रत्याशी चुने गए थे।
कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में नौ, बिहार में तीन, असम में नौ, आन्ध्र प्रदेश में 29, गोवा में एक, गुजरात में 12, हरियाणा में नौ, हिमाचल प्रदेश में तीन, जम्मू कश्मीर में दो, कर्नाटक में आठ, मध्य प्रदेश में चार, महाराष्ट्र में 13, राजस्थान में चार, पश्चिम बंगाल में छह, झारखंड में छह, दिल्ली में छह, मणिपुर और मेघालय में एक-एक, ओडिशा और पंजाब में दो-दो, तमिलनाडु में दस, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, अंडमान निकोबार, चंडीगढ़ और दमनदीव में एक-एक सीट मिली थी।
इस चुनाव में राष्ट्रीय पार्टियों के 364 तथा राज्य स्तरीय पार्टियों के 159 उम्मीदवार विजयी हुए थे। राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव बिहार में दो सीटों पर निर्वाचित हुए थे जबकि जनता दल (यू) के उम्मीदवार शरद यादव पराजित हो गए थे। कांग्रेस की सोनिया गांधी, भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी, बहुजन समाज पार्टी की मायावती, समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी तथा लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के रामविलास पासवान जीत गए थे जबकि कांग्रेस नेता सुशील कुमार शिंदे चुनाव हार गए थे।
लोकसभा के 543 सीटों के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस 145 सीट ही जीत सकी थी लेकिन उसे सहयोगी दलों के साथ मिलकर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार बनाने में कामयाबी मिली। गठबंधन ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को अपना नेता चुन लिया था लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री पद संभालने से इनकार कर दिया और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में नई सरकार का गठन हुआ।
पंद्रहवां लोकसभा चुनाव 2009
पांच वर्ष तक केंद्र में सफलतापूर्वक साझा सरकार चलाने वाली कांग्रेस ने 2009 के आम चुनाव में पिछली बार से बेहतर प्रदर्शन किया और सहयोगी दलों के साथ मिलकर फिर से सरकार बनाई जबकि वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर मैदान में उतरी भारतीय जनता पार्टी कोई करिश्मा नहीं कर सकी और भारत में उदारीकरण के जनक और वित्त मंत्री रहे मनमोहन सिंह दूसरी बार प्रधानमंत्री बने।
पंद्रहवीं लोकसभा के सदस्यों का चुनाव करने के लिए भारत में 16 अप्रैल 2009 से 13 मई 2009 के बीच पाँच चरणों में आम चुनाव हुए थे। 716 मिलियन मतदाताओं के साथ, यह आम चुनाव अब तक दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक चुनाव था। 2009 के चुनाव में, संसद द्वारा चुनाव खर्च के लिए 11.20 बिलियन रुपये ( 200.5 मिलियन डॉलर ) का बजट रखा गया था।
कुल 8,070 उम्मीदवारों ने फ़र्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट वोटिंग का उपयोग करके एकल-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों में निर्वाचित 543 सीटों पर चुनाव लड़ा। सभी पाँच चरणों में मतदान लगभग 58% रहा। चुनाव के नतीजे पाँचवें चरण के तीन दिन के भीतर, 16 मई को घोषित किए गए। 2004 के चुनाव की तरह, यह चुनाव भी पूरी तरह से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) का उपयोग करके आयोजित किया गया था, जिसमें देश भर में 1,368,430 वोटिंग मशीनें तैनात की गई थीं। इसके साथ ही देश भर में 828,804 मतदान केंद्र थे – 2004 के चुनाव की तुलना में 20% की वृद्धि था।
इस चुनाव में असम, नागालैंड और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में फोटोयुक्त मतदाता सूची का इस्तेमाल किया गया। इसका मतलब यह था कि प्रत्येक मतदाता की फोटो मतदाता सूची पर छपी थी और इसका उद्देश्य पहचान को आसान बनाना और छद्मवेश को रोकना था। फोटो मतदाता सूची के अलावा, मतदाताओं को अलग से फोटो पहचान पत्र भी देना पड़ता था।
लोकसभा की 543 सीटों के लिए हुए इस चुनाव में सात राष्ट्रीय, 34 राज्य स्तरीय, 322 निबंधित पार्टियों ने चुनाव लड़ा। राष्ट्रीय पार्टियों में कांग्रेस, भाजपा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल शामिल थे। कुल 8070 उम्मीदवारों ने अपनी राजनीतिक किस्मत को आजमाया था।
राष्ट्रीय पार्टियों ने कुल 1623 स्थानों पर उम्मीदवार खड़े किए थे जिनमें से 376 सीटों पर उन्हें सफलता मिली। इन पार्टियों को 63.58 प्रतिशत वोट मिले थे। राज्य स्तरीय पार्टियों ने 394 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे थे जिनमें से 146 निर्वाचित हुए थे। निबंधित पार्टियों ने 6053 उम्मीदवार लड़ाए थे जिनमें से 21 जीत गए थे।
कांग्रेस के 440 उम्मीदवारों में से 206, भाजपा के 433 में से 116 और बसपा के 500 उम्मीदवारों में से 21 ही जीत सके थे। भाकपा और माकपा को बड़ा झटका लगा था। भाकपा के 56 में से चार तथा माकपा के 82 में से 16 उम्मीदवार ही निर्वाचित हो पाए थे। राकपा के 68 में नौ और राजद के 44 में से चार प्रत्याशी विजयी हो पाए थे।
सोलहवां लोकसभा चुनाव 2014
भारत में सोलहवीं लोकसभा के लिए आम चुनाव 7 अप्रैल से 12 मई 2014 तक 9 चरणों में संपन्न हुए। यह पहला अवसर था जब 9 चरणों में लोकसभा चुनाव संपन्न हुआ। सभी नौ चरणों में औसत मतदान 66.38% के आसपास रहा जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। इस चुनाव के परिणाम भी चौंकाने वाले रहे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) 336 सीटों के साथ सत्ता में आया, जबकि भाजपा 282 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी।
देश की सबसे पुरानी और सर्वाधिक समय तक सत्ता में रही कांग्रेस के पार्टी के लिए यह चुनाव ‘बुरे सपने’ की तरह रहा। कांग्रेस को सिर्फ 44 सीटें मिलीं और कांग्रेस नीत यूपीए मात्र 59 सीटों पर सिमट गया। कांग्रेस नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल करने की पात्रता भी हासिल नहीं कर पाई। इसके लिए कम से कम 54 सीटों (कुल सीटों का 10 प्रतिशत) की दरकार होती है।
16वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में चुनाव खर्च की सीमा भी बढ़ाई गई। बढ़े राज्यों में यह सीमा 40 लाख से बढ़ाकर 70 लाख रुपए की गई, जबकि छोटे राज्यों में इसे 54 लाख रुपए कर दिया गया। 2014 में देश के कुल 83,40,82,814 मतदाताओं में से 54,78,00,004 वैध वोट पड़े थे जिनमें से 33,24,94,491 वोट राष्ट्रीय पार्टियों के खाते में आए थे।
भारतीय जनता पार्टी ने 428 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे जिनमें से 282 को जीत हासिल हुई थी। कांग्रेस ने शायद अपने इतिहास में सबसे बुरी हार का सामना किया और उसके 464 प्रत्याशियों में से सिर्फ 44 को ही जीत का स्वाद चखने का मौका मिला था। उसकी सहयोगी नैशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी को 36 में से 6 सीटों पर जीत मिली थी। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया को 67 में से 1 और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सिस्ट) को 93 में से 9 सीटों के साथ संतोष करना पड़ा था। सबसे खराब स्थिति मायावती की बहुजन समाज पार्टी की रही जिसने 503 उम्मीदवार मैदान में उतारे लेकिन पार्टी खाता भी नहीं खोल सकी।
मनमोहन सिंह ने 17 मई को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया। राष्ट्रपति के अनुरोध पर वे 26 मई 2014 तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में बने रहे, जब नरेंद्र मोदी और उनके मंत्रिमंडल ने पद की शपथ ली।
सत्रहवां लोकसभा चुनाव 2019
सत्रहवीं लोक सभा के चुनाव के लिए भारतीय आम चुनाव, देशभर में 11 अप्रैल से 19 मई 2019 के बीच 7 चरणों में अयोजित कराये गये। भारतीय चुनाव आयोग के अनुसार, 2014 के पिछले आम चुनाव के बाद से 8.43 करोड़ मतदाताओं की वृद्धि के साथ 90 करोड़ लोग वोट देने के पात्र है, यह दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव था।
हाल के चुनावों की तरह ही, 2019 के मतदान के लिये ईवीएम – इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल किया गया है। भारत निर्वाचन आयोग ने एक मतदाता-सत्यापित पेपर ऑडिट ट्रेल (VVPAT) प्रणाली का भी उपयोग किया, जो इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को EVM स्लिप जनरेट करके प्रत्येक वोट कास्ट रिकॉर्ड करने में सक्षम बनाता है। पिछले चुनावों में एक नमूना आधार पर कोशिश की गई, 2019 के चुनाव के लिए सभी 543 लोक सभा क्षेत्रों में VVPAT प्रणाली का उपयोग किया गया।
इन चुनावों में 50 से अधिक दल चुनाव लड़ रहे हैं। इनमें 7 राष्ट्रीय दलों के अलावा ज्यादातर क्षेत्रीय छोटे दल हैं। मुख्य दलों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) हैं। 2014 के अपवाद के साथ, किसी भी पार्टी ने 1984 के बाद से लोक सभा में बहुमत नहीं जीता है, और इसलिए गठबंधन करना भारतीय चुनावों में आम है। 2019 के आम चुनाव में, चार मुख्य राष्ट्रीय चुनाव पूर्व गठबंधन हैं। इनमें भाजपा की अगुवाई वाले राजग (एनडीए), कांग्रेस की अगुवाई वाले संप्रग (यूपीए), क्षेत्रीय दलों का महागठबंधन और कम्युनिस्ट-झुकाव वाले दलों का वाम मोर्चा शामिल हैं।
चुनाव के परिणाम 23 मई को घोषित कि, जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने 303 सीटों पर जीत हासिल की, और अपने पूर्ण बहुमत बनाये रखा और भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 353 सीटें जीतीं। भाजपा ने 37.36% वोट हासिल किए, जबकि एनडीए का संयुक्त वोट शेयर 60.37 करोड़ वोटों का 45% था। कांग्रेस पार्टी ने 52 सीटें जीतीं और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 92 सीटें जीतीं। अन्य दलों और उनके गठबंधन ने भारतीय संसद में 97 सीटें जीतीं।
भाजपा ने इस बार 2014 से भी बड़ी और ऐतिहासिक जीत दर्ज की, भाजपा के कुल 303 प्रत्याशी विजयी हुए। 10 राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों में सारी सीटों पर भाजपा की जीत हुआ। उत्तर प्रदेश में भी भाजपा ने सीधी रणनीति से सपा, बसपा गठबंधन की चुनौती को ध्वस्त कर दिया। उधर पश्चिम बंगाल में भाजपा ने 18 सीटें जीतकर एक इतिहास रच दिया। भारत की स्वतन्त्रता के बाद यह केवल दूसरी बार है जब मतदाताओं ने एक ही दल को लगातार दूसरी बार, पहले से अधिक बहुमत से जिताया हो। इस प्रकार 2019 लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने प्रचण्ड बहुमत के साथ देश की बागडोर फिर नरेन्द्र मोदी के हाथों में सौंप दी।
अठारहवां लोकसभा चुनाव 2024
भारत में 18वीं लोकसभा चुनाव अप्रैल और मई 2024 तक है। चुनाव आयोग 16 मार्च 2024 को 3 बजे तक लोकसभा चुनाव के तारीखों की घोषणा की नवनियुक्त चुनाव आयोग ज्ञानेश कुमार और सुखबीर सिंह सिंधू के साथ मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार चुनाव की तारीखों का ऐलान किया।
चुनाव कार्यक्रम के अनुसार, लोकसभा चुनाव सात चरण में होंगे। पहले चरण में 19 अप्रैल को लोकसभा की 102 सीटों पर, दूसरे चरण के तहत 26 अप्रैल को 89 सीट पर, तीसरे चरण के तहत 7 मई को 94, चौथे चरण के तहत 13 मई को 96, पांचवें चरण के तहत 20 मई को 49, छठे चरण के तहत 25 मई को 57 और सातवें चरण के तहत 1 जून को लोकसभा की 57 सीटों पर मतदान होगा। नतीजों की घोषणा 4 जून को होगी।
चुनाव लड़ने वाले 6 राष्ट्रीय दल हैं जिनमें भारतीय जनता पार्टी (BJP), कांग्रेस (Congress), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI(M), बहुजन समाज पार्टी (BSP), नेशनल पीपुल्स पार्टी (NPP) और आम आदमी पार्टी (AAP)। इन पार्टियों में बीजेपी और कांग्रेस चुनाव के मुख्य दावेदार हैं।
भारत में लोकसभा चुनाव को लेकर सरगर्मी लगातार बढ़ रही है। सत्ता पक्ष और विपक्ष में आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी जारी है। लेकिन इन सबके बीच अब विपक्ष ने चुनाव आयोग की मंशा पर भी सवाल उठा दिए हैं। मामला है दो चरणों के मतदान के आँकड़ें जारी करने में हुई देरी। विपक्ष का तर्क है कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। कई विपक्षी नेताओं को लगता है कि चुनाव आयोग का क़दम शक पैदा करता है।
जानकारों के मुताबिक़ वोटिंग वाले दिन शाम तक चुनाव आयोग एक मोटा आँकड़ा जारी करता है जिसे और सूचना आने के बाद उसमें सुधार किया जाता है और फिर अगले कुछ घंटों में मतदान का अंतिम आँकड़ा जारी किया जाता है।