जीव विज्ञान की शाखा और उनके जनक से जुड़े जरूरी जानकारी

जीव विज्ञान की शाखा और उनके जनक कौन कौन से है?

विज्ञान के क्षेत्र में जीव विज्ञान एक महत्त्वपूर्ण भाग है। जीवविज्ञान प्राकृतिक विज्ञान की तीन विशाल शाखाओं में से एक है। यह विज्ञान जीव, जीवन और जीवन के प्रक्रियाओं के अध्ययन से सम्बन्धित है। इस विज्ञान में हम जीवों की संरचना, कार्यों, विकास, उद्भव, पहचान, वितरण एवं उनके वर्गीकरण के बारे में पढ़ते हैं। आधुनिक जीव विज्ञान एक बहुत विस्तृत विज्ञान है, जिसकी कई शाखाएँ हैं। तो आइये देखते है, जीव विज्ञान की शाखा और उनके जनक कौन कौन से है?

जीव विज्ञान की शाखा और उनके जनक

इस आर्टिकल की प्रमुख बातें

जीव विज्ञान की शाखा और उनके जनक से जुड़े जरूरी जानकारी

जीव विज्ञान विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत सजीवों का अध्ययन किया जाता है। सर्वप्रथम जीव विज्ञान शब्द का प्रयोग लैमार्क और ट्रेविरेनस ने सन् 1802 में किया था। अरस्तू (एक ग्रीक दार्शनिक) को जीव विज्ञान (Biology) का जनक (Father of Biology) माना जाता है। विज्ञान की अन्य शाखाओं की भांति जीव विज्ञान की उत्पत्ति एवं विकास के पीछे मानव की दो मूलभूत प्रवार्तियाँ रहीं हैं।

  • प्रक्रति एवं प्राक्रतिक संसाधनों जिनमें जीवधारी शामिल हैं को अपने नियंत्रण में करके उनका उपयोग करना

जीवधारियों के विषय में ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा केवल जिज्ञासा की शांति के लिए जीवधारियों के अध्ययन को “सैद्धांतिक जीव विज्ञान ” कहते हैं। जबकि मानव के हित के लिए जीवधारियों के अध्ययन को ‘व्यावहारिक जीव विज्ञान’ कहते है।

वनस्पति विज्ञान – थियोफ्रेस्टस (Theophrastus)

प्रो. साहनी ने भारत में पौधों की उत्पत्ति तथा पौधों के जीवाश्म पर महत्त्वपूर्ण शोध किए। पौधों के जीवाश्म पर उनके शोध मुख्य रूप से जीव विज्ञान की विभिन्न शाखाओं पर आधारित थे।

वनस्पति विज्ञान के अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य है पौधों के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करना वनस्पति विज्ञान के अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य है, पौधों के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करना। पौधे हमारे लिए अत्यधिक महत्वूर्ण व लाभदायक होते है। बीरबल साहनी को भारतीय पुरा-वनस्पति विज्ञान यानी इंडियन पैलियोबॉटनी का जनक माना जाता है। पौधे हमारे लिए अत्यधिक महत्वूर्ण व लाभदायक होते है ।

आधुनिक वनस्पति विज्ञान – लीनियस (Lenius)

कार्ल वॉन लिने, जिन्हें आज सारा विश्व लीनियस के नाम से जानता है, का जन्म डार्विन से लगभग एक शताब्दी पहले 23 मई सन 1707 में हुआ था। स्थान था दक्षिणी स्वीडन का एक छोटा-सा गाँव राशुल। उनके पिता निल्स लीनियस ने पादरी होने के साथ मन में उच्च शिक्षा के सपने भी पाल रखे थे। किन्तु अट्ठारहवीं शती के प्रारम्भ के दशकों में स्वीडन की राजनीतिक हलचलों, युद्धों और उतार-चढ़ाव ने उन्हें कभी अपने हृदय के कोने में पाले सपने को पूरा करने का अवसर नहीं दिया। यह सपना पिता की अन्यान्य विरासतों के साथ पुत्र को स्थानान्तरित हो गया। पिता ने अपनी एक और गुण अपने बेटे में बीजारोपित किया था- वह था प्रकृति के प्रति उद्दाम प्रेम। कार्ल लीनियस ने प्रकृति के विषय में अपने प्रेम और समझ का सारा श्रेय अपने पिता को ही दिया है।

लीनियस ने पुष्पों को 24 वर्गों में विभक्त किया जो सभी नर जननांग (स्टेमेन) पर आधारित थे। हर क्लास को ‘ऑर्डर्स’ में पुनर्विभाजित किया गया और इस बार का विभाजन मादा जननांगों (पिस्टिल) पर आधारित था। इस प्रकार हर पुष्प के अब दो लैटिन नाम थे जो किसी वनस्पति विज्ञानी को प्रकृति की योजना में उनके उचित स्थान का पता बताते हैं। 21वीं सदी के वनस्पति विज्ञान में प्रमुख विषय आनुवंशिकी और एपिजेनेटिक्स हैं, जो पादप कोशिकाओं और ऊतकों के विभेदन के दौरान जीन अभिव्यक्ति के तंत्र और नियंत्रण का अध्ययन करते हैं।

आनुवंशिकी – ग्रेगर जॉन मेंडल (Gregor John Mendel)

आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) जीव विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत आनुवंशिकता (हेरेडिटी) तथा जीवों की विभिन्नताओं (वैरिएशन) का अध्ययन किया जाता है। इसे ‘समान से समान की उत्पति’ (लाइक बिगेट्स लाइक) का सिद्धान्त कहते हैं। आनुवंशिकता के अध्ययन में ग्रेगर जॉन मेंडेल की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है।

ग्रेगर जॉन मेंडल (20 जुलाई, 1822 – 6 जनवरी, 1884) एक जर्मन भाषी ऑस्ट्रियाई औगस्टेनियन वैज्ञानिक थे। उन्हें आनुवांशिकी का जनक कहा जाता है। उन्होंने मटर के दानों पर प्रयोग कर आनुवांशिकी के नियम निर्धारित किए थे। उनके कार्यों की महत्ता बीसवीं शताब्दी तक नहीं पहचानी गई बाद में उन नियमों की पुनर्खोज ने उनका महत्व बताया।

आधुनिक आनुवंशिकी –
टी. एच. मॉर्गन

थॉमस हंट मॉर्गन एक अमेरिकी विकासवादी जीवविज्ञानी, आनुवंशिकीविद्, भ्रूणविज्ञानी और विज्ञान लेखक थे, जिन्होंने गुणसूत्र की भूमिका को स्पष्ट करने वाली खोजों के लिए 1933 में फिजियोलॉजी या मेडिसिन में नोबेल पुरस्कार जीता था।

मॉर्गन ने अपनी पीएच. डी. जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय से 1890 में जूलॉजी में और ब्रायन मावर में अपने कार्यकाल के दौरान भ्रूण विज्ञान पर शोध किया। 1900 में मेंडेलियन वंशानुक्रम की पुन : खोज के बाद , मॉर्गन ने फल मक्खी ड्रोसोफिला मेलानोगास्टर की आनुवंशिक विशेषताओं का अध्ययन करना शुरू किया। कोलंबिया विश्वविद्यालय के शेरमेरहॉर्न हॉल में अपने प्रसिद्ध फ्लाई रूम में, मॉर्गन ने प्रदर्शित किया कि जीन गुणसूत्रों पर चलते हैं, और आनुवंशिकता के यांत्रिक आधार हैं । इन खोजों ने आनुवंशिकी के आधुनिक विज्ञान का आधार बनाया।

कोशिका विज्ञान – रॉबर्ट हुक (Robert Hook)

रॉबर्ट हुक 17 वीं सदी के “प्राकृतिक दार्शनिक” थे एक प्रारंभिक वैज्ञानिक प्राकृतिक दुनिया के विभिन्न अवलोकनों के लिए विख्यात। लेकिन शायद उनकी सबसे उल्लेखनीय खोज 1665 में हुई जब उन्होंने एक माइक्रोस्कोप लेंस के माध्यम से कॉर्क के एक टुकड़े को देखा और कोशिकाओं की खोज की।

सेल की खोज हुक आज सबसे अच्छी तरह से पौधों की सेलुलर संरचना की पहचान के लिए जाना जाता है। जब उन्होंने अपने माइक्रोस्कोप के माध्यम से कॉर्क के एक टुकड़े को देखा, तो उन्होंने उसमें कुछ “छिद्र” या “कोशिकाएं देखीं। हुक का मानना था कि कोशिकाओं ने एक बार जीवित कॉर्क के पेड़ के महान रस “या” रेशेदार धागे ” के लिए कंटेनरों के रूप में काम किया था। उन्होंने सोचा कि ये कोशिकाएँ केवल पौधों में मौजूद हैं, क्योंकि उन्होंने और उनके वैज्ञानिक ने केवल पौधों की सामग्री में संरचनाओं का अवलोकन किया था। हुक पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कॉर्क का वर्णन।

हुक का नियम :
  • ठोस पिंडों के लिए लोच का नियम , जो बताता है, कि स्प्रिंग कॉइल में तनाव कैसे बढ़ता और घटता है।
  • गुरुत्वाकर्षण की प्रकृति के साथ – साथ धूमकेतु और ग्रहों जैसे स्वर्गीय पिंडों पर विभिन्न अवलोकन जीवाश्मीकरण की प्रकृति।

यह अध्ययन सूक्ष्म तथा आणविक स्तरों पर किया जाता है। कोशिका विज्ञान या कोशिका जैविकी में कोशिकाओं के शरीर क्रियात्मक गुणों संरचना, कोशिकांगों वाह्य पर्यावरण के साथ क्रियाओं, जीवनचक्र, विभाजन तथा मृत्यु का वैज्ञानिक अध्यन किया जाता है।

वर्गिकी – लीनियस (Lenius)

कार्ल लीनियस एक स्वीडिश वनस्पतिशास्त्री , चिकित्सक और जीव विज्ञानी थे, जिन्होने द्विपद नामकरण की आधुनिक अवधारणा की नींव रखी थी । इन्हें आधुनिक वर्गिकी ( वर्गीकरण ) के पिता के रूप में जाना जाता है, साथ ही यह आधुनिक पारिस्थितिकी के प्रणेताओं मे से भी एक हैं ।

वर्गिकी का कार्य :

आकारिकी, आकृतिविज्ञान क्रियाविज्ञान परिस्थितिकी और आनुवंशिकी पर आधारित है। जीवविज्ञान संबंधी किसी प्रकार के विश्लेषण का प्रथम सोपान है, सुव्यवस्थित ढंग से उसका वर्गीकरण, अत: पादप, या जंतु के अध्ययन का पहला कदम है, उसका नामकरण, वर्गीकरण और तब वर्णन।

चिकित्सा शास्त्र – हिप्पोक्रेट्स (Hippocrates)

हिपोक्रेटिस, प्राचीन यूनान के एक प्रमुख विद्वान थे। ये यूनान के पाश्चात्य चिकित्सा शास्त्र के जन्म दाता थे। इनका जन्म 470 – 370 ई. पूर्व माना जाता है। इनका जन्म प्राचीन यूनान के शहर कोस में हुवा। और मृत्यु शहर लारिस्सा में हुई। ऐसा माना जाता है, कि इन्होने मानव रोगों पर प्रथम ग्रन्थ लिखा। इन्हे चिकीत्साशास्त्र का जनक भी कहते है।

कवक विज्ञान – माइकेली (Micelle)

कवक विज्ञान (अँग्रेजी : Mycology) कवक प्रजाति का ज्ञान ( विज्ञान ) है, जिसमें उनकी जैव – रसायनीय विशेषताओं का, अनुवांशिक विशेषताओं आदि की एवं मानव के कल्याण हेतु आयुर्विज्ञान आदि हेतु अनुसन्धान किया जाता है। कवक पर्णहरिमरहित होते हैं। इनमें जड तना पत्ती नही होती है। ये परजीवी अथवा मृतजीवी होते हैं। और बीजाणुओं द्वारा जनन करते हैं। कुछ कवक सहजीवी भी होते हैं।

फंगस या कवक जीवों का एक विशाल समुदाय है। जिसे साधारणतया वनस्पतियों में वर्गीकृत किया जाता है। इस वर्ग के सदस्य पर्णहरित रहित होते हैं और इनमें प्रजनन बीजाणुओं द्वारा होता है। ये सभी सूकाय वनस्पतियाँ हैं, अर्थात् इनके शरीर के ऊतकों में कोई भेदकरण नहीं होता। दूसरे शब्दों में, इनमें जड़, तना और पत्तियाँ नहीं होतीं तथा इनमें अधिक प्रगतिशील पौधों की भाँति संवहनीयतंत्र नहीं होता।

पहले इस प्रकार के सभी जीव एक ही वर्ग कवक के अंतर्गत परिगाणित होते थे, परंतु अब वनस्पति विज्ञानविदों ने कवक वर्ग के अतिरिक्त दो अन्य वर्गों की स्थापना की है जिनमें क्रमानुसार जीवाणु और हैं। जीवाणु एककोशीय होते हैं जिनमें प्रारूपिक नाभिक नहीं होता तथा श्लेष्मोर्णिक की बनावट और पोषाहार जंतुओं की भाँति होता है। कवक अध्ययन के विज्ञान को “कवक विज्ञान” कहते हैं।

जीवाणु विज्ञान – ल्यूवेनहॉक (Luenhawk)

एंटोन वोन लुएन्हूक एक डच जीव वैज्ञानिक थे। वे सूक्ष्म – जीव जीवाणु विज्ञान के जनक माने जाते हैं। उनके सूक्ष्मदर्शी यंत्र ने जीव – विज्ञान की दुनिया में क्रांति ला दी। जीवाणु सूक्ष्म जीव हैं, जो प्रायः एककोशिकीय होते हैं। ये अकेन्द्रिक, कोशिका भित्तियुक्त, एक कोशकीय सरल जीव हैं और प्रायः सर्वत्र पाये जाते हैं।

इनका आकार कुछ मिलिमीटर तक ही होता है। इनकी आकृति गोल या मुक्त – चक्राकार से लेकर छड़ आदि के आकार की होती है। ये पृथ्वी पर मिट्टी में, अम्लीय, गर्म जल – धाराओं में, नाभिकीय पदार्थों में जल में, पपड़ी में, यहां तक की कार्बनिक पदार्थों में तथा पौधौं एवं जन्तुओं के शरीर के भीतर भी पाये जाते हैं।

सूक्ष्म जीव विज्ञान – लुई पाश्चर (Louis Pasteur)

लुई पाश्चर, ( Louis Pasteur ) एक फ़्रांसिसी चिकित्साविद और वैज्ञानिक थे जिन्होंने अपनी वैज्ञानिकों खोजो के द्वारा बीमारी के दौरान घाव उत्पन्न होने की स्थिति में जो असहनीय पीड़ा होती है उससे मुक्ति दिलाकर एक बड़ी मानव सेवा ही की थी । उन्हें 19 वी शताब्दी के विशिष्ठ वैज्ञानिकों में उन्हें गिना जाता है।

रेशम के कीड़ो के रोग की रोकथाम के लिए उन्होंने 6 वर्षों तक इतने प्रयास किये कि वे अस्वस्थ हो गये। पागल कुत्तो के काटे जाने पर मनुष्य के इलाज का टीका, हैजा, प्लेग आदि संक्रामक रोगों के रोकथाम के लिए उन्होंने विशेष कार्य किया यह सचमुच एक महान कार्य था। इसी कारण इन्हें जीव विज्ञान की इस शाखा का जनक कहा जाता है।

आधुनिक भ्रुण विज्ञान – वॉन बेयर (Von bayer)

वॉन बेयर भ्रूणविज्ञानी जिन्होंने स्तनधारी डिंब और नोटोकॉर्ड की खोज की और तुलनात्मक भ्रूण विज्ञान के नए विज्ञान की स्थापना की। तुलना शरीर रचना विज्ञान के साथ। वह विज्ञान और भौतिकविज्ञान में भी अग्रणी थे। 1814 में उन्होंने चिकित्सा की डिग्री प्राप्त की। अपने चिकित्सा प्रशिक्षण से असंतुष्ट, बेयर ने 1814 से 1817 तक जर्मनी और ऑस्ट्रिया में अध्ययन किया।

उनकी शिक्षा का महत्वपूर्ण वर्ष शैक्षणिक वर्ष 1815-16 था, जब इग्नाज डॉलिंगर के साथ वुर्जबर्ग विश्वविद्यालय में तुलनात्मक शरीर रचना में उनके प्रशिक्षण ने उन्हें एक नए से परिचित कराया। विश्व जिसमें भ्रूणविज्ञान का अध्ययन शामिल था (ऑन द डेवलपमेंटल हिस्ट्री ऑफ एनिमल्स) पुस्तक में कानून तैयार किए। उन्होंने विशेष रूप से जोहान फ्रेडरिक मेकेल के 1808 के पुन र्पूजीकरण सिद्धांत का खंडन करने का इरादा किया था।

उस सिद्धांत के अनुसार, भ्रूण क्रमिक चरणों से गुजरते हैं, जो विकास के दौरान कम जटिल जीवों के वयस्क रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं, वॉन बेयर का मानना था, कि ऐसा रैखिक विकास असंभव है। उन्होंने कहा कि रैखिक प्रगति के बजाय, भ्रूण एक या कुछ बुनियादी रूपों से शुरू होते हैं, जो विभिन्न जानवरों में समान होते हैं, और फिर एक शाखा पैटर्न में तेजी से विभिन्न जीवों में विकसित होते हैं।

अपने विचारों का बचाव करते हुए, वह चार्ल्स डार्विन के 185 9 के सामान्य वंश और संशोधन के साथ वंश के सिद्धांत का भी विरोध कर रहे थे, और विशेष रूप से अर्नस्ट हेकेल के संशोधित पुन र्पूजीकरण सिद्धांत के नारे ” ओटोजेनी रिकैपिटुलेट्स फाइलोजेनी ” के साथ थे। हालांकि डार्विन व्यापक रूप से वॉन बेयर के भ्रूणविज्ञान और विकासवाद के बीच संबंधों के दृष्टिकोण के समर्थक थे।

पादप शारीरिकी – एन . गृऊ (N. Greyhu)

पादप शारीरिकी में वनस्पतियों के आन्तरिक संरचना का अध्ययन किया जाता है। प्रत्येक जीवधारी का शरीर छोटी – छोटी कोशिकाओं से मिलकर बना होता है। आवृतबीजियों के शरीर में अलग – अलग अंगों की आंतरिक बनावट विभिन्न होती है। कोशिकाएँ विभिन्न आकार की होती हैं। इन्हें ऊतक कहते हैं। कुछ ऊतक विभाजन करते हैं और इस प्रकार नए ऊतक उत्पन्न होते हैं जिन्हें  विमज्यातिकी कहते हैं। यह मुख्यतः जड़ और तने के सिरों पर या, अन्य बढ़ती हुई जगहों पर, पाए जाते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य ऊतक स्थायी हो जाते हैं और अपना एक निश्चित कार्य करते हैं, जैसे :

  • मृदूतक जिसमें कोशिका की दीवारें पतली तथा समव्यास होती है।
  • हरित ऊतक भी इसी प्रकार का होता है, पर इसके अंदर पर्णहरित भी होता है।

औतिकी – मार्सेलो मैलपीगी (Marcelo Malpi)

मार्सेलो माल्पीघी एक इतालवी जीवविज्ञानी और चिकित्सक थे, जिन्हें जीव विज्ञान की शाखा “सूक्ष्म शरीर रचना विज्ञान, ऊतक विज्ञान और शरीर विज्ञान के पिता के संस्थापक” के रूप में जाना जाता है। और भ्रूणविज्ञान ” वह जानवरों में केशिकाओं को देखने वाले पहले व्यक्ति थे, और उन्होंने धमनियों और नसों के बीच की कड़ी की खोज की, जो विलियम हार्वे से दूर थी।

माल्पीघी जन स्वमरडम के बाद माइक्रोस्कोप के तहत लाल रक्त कोशिकाओं का निरीक्षण करने वाले शुरुआती लोगों में से एक थे। उनका ग्रंथ डी पॉलीपो कॉर्डिस (1666) रक्त की संरचना को समझने के साथ-साथ रक्त के थक्कों को समझने के लिए महत्वपूर्ण था। इसमें मालपीघी ने वर्णन किया है , कि किस प्रकार रक्त के थक्के का रूप हृदय के बाईं ओर के दाहिनी ओर भिन्न होता है।

माइक्रोस्कोप के उपयोग ने माल्पीघी को यह पता लगाने में सक्षम बनाया कि कीड़े सांस लेने के लिए फेफड़ों का उपयोग नहीं करते हैं, लेकिन उनकी त्वचा में छोटे-छोटे छेद होते हैं जिन्हें ट्रेकिआ कहा जाता है। माल्पीघी ने मस्तिष्क की शारीरिक रचना का भी अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि यह अंग एक ग्रंथि है, चूंकि मालपीघी को पौधों और जानवरों दोनों का व्यापक ज्ञान था, इसलिए उन्होंने दोनों के वैज्ञानिक अध्ययन में योगदान दिया। पूरे साक्षर विश्व में सबसे सुंदर प्रारूप के रूप में रंध्र, (जिसके माध्यम से पौधे ऑक्सीजन के साथ कार्बन डाइऑक्साइड का आदान-प्रदान करते हैं) में योगदान दिया।

इस काम के कारण, कई सूक्ष्म संरचनात्मक संरचनाओं का नाम माल्पीघी के नाम पर रखा गया है, जिसमें एक त्वचा परत (मालपीघी परत) और गुर्दे और प्लीहा में दो अलग-अलग माल्पीघियन कणिकाओं के साथ-साथ कीड़ों के उत्सर्जन तंत्र में माल्पीघियन नलिकाएं शामिल हैं।

प्रतिरक्षा विज्ञान – एडवर्ड जेनर (Edward Jenner)

एडवर्ड जेनर एक ब्रिटिश चिकित्सक और वैज्ञानिक थे, जिन्होंने चेचक के टीके, दुनिया का पहला टीका बनाने सहित टीकों की अवधारणा का बीड़ा उठाया था। यह शब्द जेनर द्वारा चेचक को निरूपित करने के लिए तैयार किया गया है। उन्होंने इसका इस्तेमाल 1798 में काउ पॉक्स के नाम से जाने जाने वाले वेरियोला वैक्सीन में अपनी जांच के लंबे शीर्षक में किया था जिसमें उन्होंने चेचक के खिलाफ चेचक के सुरक्षात्मक प्रभाव का वर्णन किया।

जेनर को जीव विज्ञान की शाखा “प्रतिरक्षा विज्ञान का जनक” कहा जाता है, और उनके काम के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ” किसी भी अन्य मानव के काम की तुलना में अधिक लोगों की जान बचाई ”

भारतीय ब्रायोलॉजी – एस . आर .कश्यप (S . R. Kashyap)

भारतीय ब्रायोलॉजी का पिता ( Father of Indian Bryology ) प्रो. एस. आर. कश्यप ( Prof. S R Kashyap ) को कहा जाता है। कश्यप का जन्म पंजाब के झेलम नगर के एक प्रतिष्ठित सैनिक परिवार में हुआ था। सन् 1899 में आने पंजाब विश्वविद्यालय की मैट्रिकुलेशन परीक्षा पास की, तथा सन् 1904 में आगरा के मेडिकल स्कूल की उपाधि परीक्षा में उत्तीर्ण विद्यार्थियो में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया।

डा. कश्यप ने वनस्पति शास्त्र से संबंधित अनेक मौलिक अनुसंधान किए और मूल्यवान लेख लिखे हैं, जिनमें एक्विसीटम के लैंगिक जनन, पश्चिमी हिमालय के लिवरवर्ट तथा तिब्बत के वनस्पतिसमूह पर लिखे लेखों ने आपकी ख्याति देश और विदेश में फैला दी। इन्होंने पश्चिमी हिमालय तथा पश्चिमी और मध्य तिब्बत में लंबी यात्राएँ कीं। इस प्रदेश की खोज तथा यहाँ की वनस्पतियों के अध्ययन में इनकी विशेष रुचि थी। दुर्बल स्वास्थ्य पर भी निरंतर खोज में लगे रहकर, डा. कश्यप ने सिद्ध कर दिया कि वैज्ञानिक अनुसंधान के आगे वे अपने जीवन तक को भी कोई महत्व नहीं देते थे।

भारतीय पारिस्थितिकी – आर. मिश्रा (R. Mishra)

प्रो. आर मिश्रा ( Prof. R Mishra ) को भारतीय पारिस्थितिकी का पिता कहा जाता है। प्रोफेसर रामदेव मिश्र भारत के पर्यावरणविद एवं वनस्पतिशास्त्री थे। रामदेव मिश्रा ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी के वनस्पति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर डब्ल्यूएच पियर्सल, पारिस्थितिकी के तहत ( 1937 ) में पीएचडी प्राप्त की। उनके शोध ने उष्णकटिबंधीय समुदायों और उनके उत्तराधिकार की समझ, पौधों की आबादी की पर्यावरणीय प्रतिक्रिया और उष्णकटिबंधीय वन और घास के मैदान पारिस्थितिकी तंत्र में उत्पादकता और पोषक चक्रण की नींव रखी।

भारतीय कवक विज्ञान – ई. जे. बटलर (E. J. Butler)

एडविन जॉन बटलर एक आयरिश माइकोलॉजिस्ट और प्लांट पैथोलॉजिस्ट थे। वह भारत में इंपीरियल माइकोलॉजिस्ट बने और बाद में इंग्लैंड में इंपीरियल ब्यूरो ऑफ माइकोलॉजी के पहले निदेशक बने। उन्हें 1939 में नाइट की उपाधि दी गई थी। भारत में अपने बीस वर्षों के दौरान, उन्होंने कवक और पौधों की विकृति पर बड़े पैमाने पर सर्वेक्षण शुरू किया और ऐतिहासिक पुस्तक फंगी एंड डिजीज इन प्लांट्स: एन इंट्रोडक्शन टू द डिजीज ऑफ फील्ड एंड प्लांटेशन क्रॉप्स प्रकाशित की। विशेष रूप से भारत और पूर्व और उन्हें भारत में जीव विज्ञान की शाखा,  माइकोलॉजी और प्लांट पैथोलॉजी का जनक कहा जाता है।

भारतीय शैवाल विज्ञान – एम. ओ. ए. आयंगर (M O.A. Engar)

मांडयाम ओसुरी पार्थसारथी अयंगर ( 15 दिसंबर 1886-10 दिसंबर 1963 ) एक प्रमुख भारतीय वनस्पतिशास्त्री और फाइकोलॉजिस्ट थे जिन्होंने शैवाल की संरचना, कोशिका विज्ञान, प्रजनन और वर्गीकरण पर शोध किया। उन्हें ” भारतीय फाइकोलॉजी के पिता “या” भारत में अल्गोलॉजी के पिता ” के रूप में जाना जाता है। वह भारत की फाइकोलॉजिकल सोसायटी के पहले अध्यक्ष थे। उन्होंने मुख्य रूप से Volvocales का अध्ययन किया।

1920 में प्रेसीडेंसी कॉलेज में वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर और अध्यापन के अलावा शैवाल पर काम किया। उन्होंने 1930 में क्वीन मैरी कॉलेज में प्रोफेसर एफई फ्रित्श के साथ यूके में काम किया, जहां से उन्होंने पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। अयंगर एक सक्रिय खिलाड़ी और तैराक थे। उन्होंने 1925 में अपने दो छात्रों को पंबन में डूबने से बचाया। वह मद्रास में बिलियर्ड्स चैंपियन भी थे।

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