कर्म का हमारे जीवन मे महत्व
कर्म क्या है ? मानव जीवन में कर्म का क्या महत्त्व है? कर्म से क्या पाया जा सकता है? कर्म कैसे हों ? अकर्मी की क्या गति होती है और कर्मशील की क्या गति होती है? तो आइए देखते है। इन सभी सवालों का जवाब कि आखिर कर्म है क्या? कर्म कैसे होना चाहिए? मानव जीवन मे कर्म का क्या महत्व हैं?
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कर्म क्या है और कर्म कैसा होना चाहिए ?
हम जो करते हैं केवल वही हमारे कर्म नहीं होते बल्कि हम जो सोचते हैं या जो कहते हैं वो सब हमारे कर्म ही होते हैं। कहते हैं इस संसार को हम जो भी देते हैं वह किसी न किसी रूप में वापस हमारे पास ही आता है। इस प्रकार हमारा कर्म ही हमारा भाग्य तय करता है।
कर्म शुभ और अशुभ दो प्रकार के हो सकते हैं और शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का फल मिलता है। जैसे फूल और फल किसी की प्रेरणा के बिना ही अपने समय पर वृक्षों में लग जाते हैं, उसी प्रकार पहले के किये हुए कर्म भी अपने फल-भोग के समय का उल्लंघन नहीं करते।
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मानव जीवन मे कर्म का महत्व क्या है?
इस संसार में कोई मनुष्य स्वभावतः किसी के लिए उदार , प्रिय या दुष्ट नहीं होता । अपने कर्म ही मनुष्य को संसार में गौरव अथवा पतन की ओर ले जाते हैं। कर्म करना बहुत अच्छा है, पर वह विचारों से आता है, इसलिए अपने मस्तिष्क को उच्च विचारों एवं उच्चतम आदर्शों से भर लो, उन्हें रात – दिन अपने सामने रखो, उन्हीं में से महान् कर्मों का जन्म होगा।
केवल वही व्यक्ति सब की उपेक्षा उत्तम रूप से करता है जो पूर्णतया निस्वार्थी है, जिसे न धन की लालसा है, न कीर्ति की और न अन्य किसी वस्तु की। जो निष्काम कर्म की राह पर चलता है, उसे इसकी परवाह कब रहती है कि किसने उसका अहित साधन किया है। तुम जो भी कर्म प्रेम और सेवा की भावना से करते हो , वह तुम्हें परमात्मा की ओर ले जाता है। जिस कर्म में घृणा छिपी होती है, वह परमात्मा से दूर ले जाता है।
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जीवन मे कर्म का मूल्य
कर्म का मूल्य उसके बाहरी रूप और बाहरी फल में इतना नहीं है, जितना कि उसके द्वारा हमारे भीतर दिव्यता की वृद्धि होने में है। अविद्या से संसार की उत्पत्ति होती है । संसार से घिरा जीव विषयों में आसक्त रहता है । विषयासक्ति के कारण कामना और कर्म का निरंतर दबाव बना रहता है ।
कर्मयोगी अपने लिए कुछ करता ही नहीं, अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, और अपना कुछ मानता भी नहीं । इसलिए उसमें कामनाओं का नाश सुगमता पूर्वक हो जाता है। कर्म करने और उसका फल पाने के बीच लम्बा समय लगता है, जिसकी प्रतीक्षा धैर्य पूर्वक करनी पड़ती है । बीज को वृक्ष बनने में कुछ समय लगता है । अखाड़े में दाखिल होते ही कोई पहलवान नहीं हो जाता । विद्यालय में प्रवेश पाते ही कोई ज्ञानी नहीं हो जाता । कामयाबी धैर्य से मिलती है, कर्मक्षेत्र चाहे कोई भी हो।
जो व्यक्ति छोटे – छोटे कर्मों को भी ईमानदारी से करता है, वही बड़े कर्मों को भी ईमानदारी से कर सकता है। कर्मयोगी परलोक का ध्यान कर कर्म नहीं करता, वह तो बस क्रियारत रहता है। इस धरती पर कर्म करते हुए सौ साल तक जीने की इच्छा रखो, क्योंकि कर्म करनेवाला ही जीने का अधिकारी है। जो कर्मनिष्ठा छोड़कर भोगवृत्ति रखता है, वह मृत्यु का अधिकारी बनता है।
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कर्म वह आइना है, जो हमारा स्वरूप हमें दिखा देता है। इसलिए हमें कर्म का अहसानमन्द होना चाहिए। कर्मशील लोग शायद ही कभी उदास रहते हों। कर्मशीलता और उदासी दोनों साथ-साथ नहीं रहतीं। काम को आरम्भ करो और अगर काम शुरू कर दिया है, तो उसे पूरा करके ही छोड़ो।
कर्म ही मनुष्य के जीवन को पवित्र और अंहिसक बनाता है। जो निष्काम कर्म की राह पर चलता है, उसे उसकी परवाह कब रहती है कि किसने उसका अहित साधन किया है। फलासक्ति छोड़ो और कर्म करो, आशा रहित होकर कर्म करो, निष्काम होकर कर्म करो, यह गीता की वह ध्वनि है जो भुलाई नहीं जा सकती। जो कर्म छोड़ता है वह गिरता है। कर्म करते हुए भी जो उसका फल छोड़ता है वह आगे बढ़ जाता है।
भविष्य चाहे कितना ही सुन्दर हो विश्वास न करो, भूतकाल की भी चिन्ता न करो, जो कुछ करना है उसे अपने पर और ईश्वर पर विश्वास रखकर वर्तमान में करो। कर्म ईश्वर को ऋणी बना देता है और ईश्वर उसे सूद सहित वापस करने के लिए बाध्य हो जाता है। जैसे तेल समाप्त हो जाने से दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्म के क्षीण हो जाने पर दैव नष्ट हो जाता है।
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फल मनुष्य के कर्म के अधीन है , बुद्धि कर्म के अनुसार आगे बढ़ने वाली है , तथापि विद्वान और महात्मा लोग अच्छी तरह विचार कर ही कोई कम करते हैं। खेल में हम सदा ईमानदारी का पल्ला पकड़कर चलते हैं, पर अफसोस है कि कर्म में हम इस ओर ध्यान तक नहीं देते।
अभाग्य से हमारा धन , नीचता से हमारा यश , मुसीबत से हमारा जोश , रोग से हमारा स्वास्थ् , मृत्यु से हमारे मित्र हमसे छीने जा सकते हैं , किन्तु हमारे कर्म मृत्यु के बाद भी हमारा पीछा करेंगे। जहाँ देह है वहाँ कर्म तो है ही , उससे कोई मुक्त नहीं है। तथापि शरीर को प्रभुमन्दिर बनाकर उसके द्वारा मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए। कर्म की परिसमाप्ति ज्ञान में और कर्म का मूल भक्ति अथवा सम्पूर्ण आत्म – समर्पण में है। कर्म सदैव सुख न ला सके परन्तु कर्म के बिना सुख नहीं मिलता। मनुष्य के कर्म ही उसके विचारों की सबसे अच्छी व्याख्या, कर्म ही पूजा है और कर्त्तव्य पालन भक्ति है।
दोस्तों तो आप भी अच्छे कर्म करते रहिए और साथ ही हमारा पोस्ट ‘कर्म क्या है? कर्म कैसे होना चाहिए? मानव जीवन मे कर्म का क्या महत्व हैं?’ को अपने दोस्तों के साथ शेयर भी करते रहिए